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परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द ५२. आप्त- जो पुरुष सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी होता है उसे आप्त कहते हैं । ५३. अक्षरश्रुत-जो श्रुत ( आगम ) अक्षररूप होता है उसे अक्षर श्रुत कहते हैं । षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, समयसार आदि अक्षर श्रुत हैं । ५४. अनक्षरश्रुत-अक्षर श्रुत से भिन्न अर्थात् अक्षररहित श्रुत को अनक्षर श्रुत कहते हैं । दिव्यध्वनि को अनक्षर श्रुत कहा जा सकता है । ५५. प्रमत्तगुणस्थान- यह गुणस्थान छठवें गुणस्थानवर्ती साधु के होता है । इसमें प्रमाद का सद्भाव रहने के कारण इसे प्रमत्तगुणस्थान कहते हैं । ५६. अप्रमत्त साधु-सातवें गुणस्थानवर्ती साधु को अप्रमत्त साधु कहते हैं । यहाँ प्रमाद का अभाव हो जाने के कारण सातवें गुणस्थान का नाम अप्रमत्त गुणस्थान है। ५७. मोक्ष-संवर और निर्जरा के द्वारा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने का नाम मोक्ष है । मुक्त जीव लोक के अग्रभाग में पहुंचकर सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है और फिर कभी वहाँ से लौटकर संसार में नहीं आता है । ५८. घातिया कर्म-आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार कर्म घातिया कर्म कहलाते हैं । ५९. अघातिया कर्म-जो कर्म आत्मा के गुणों का घात नहीं करते हैं उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-ये चार अघातिया कर्म हैं। ६०. समुद्घात-मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मप्रदेशों के बाहर निकल जाने को समुद्घात कहते हैं-समुद्घात सात होते हैं । समुद्घात का यह लक्षण वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजस-इन छह समुद्घातों में पाया जाता है, केवली समुद्घात में नहीं । क्योंकि वहाँ लोकपूरण समुद्घात के समय केवली के आत्मप्रदेश मूल शरीर को 'छोड़कर पूरे लोकाकाश में फैल जाते हैं । .. ६१. केवली समुद्घात-जब आयु कर्म की स्थिति कम हो और वेदनीय,
नाम और गोत्र-इन तीन कर्मों की स्थिति आयु कर्म से अधिक हो तब इन