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परिशिष्ट-१ : कुछ विचारणीय बिन्दु २४९ कि देवदत्त की अगना ( स्त्री ) के शरीर आदि कार्य की उत्पत्ति में देवदत्त का अदृष्ट निमित्त कारण होता है । देवदत्त का अदृष्ट भोग्य सामग्री की उत्पत्ति के स्थान में रहकर ही उसकी उत्पत्ति में कारण होता है और ऐसा तभी संभव है जब देवदत्त की आत्मा व्यापक हो । मान लीजिए देवदत्त वाराणसी में रहता है और उसकी अंगना की उत्पत्ति अमेरिका में होती है तो देवदत्त के अदृष्ट का अस्तित्व अमेरिका में भी है । नैयायिक-वैशेषिक अदृष्ट को आत्मा का गुण मानते हैं और जहाँ आत्मा के गुण हैं वहाँ आत्मा की सत्ता भी सिद्ध होती है । अदृष्ट को धर्माधर्म भी कहते हैं । इस प्रकार वैशेषिकों ने अदृष्ट को भोग्य सामग्री की उत्पत्ति में कारण मानकर आत्मा को व्यापक सिद्ध किया है। ___ आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के सम्बन्ध में प्रदत्त उपरिलिखित तर्क के खण्डन में प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृष्ठ ५७२ ) में एक पंक्ति इस प्रकार है____ अथ धर्माधर्मों, तदङ्गनादिकार्यं तन्निमित्तमस्माभिरपीष्यते एव । तदात्मगुणत्वं तु तयोरसिद्धम्।।
यदि आपके अनुसार देवदत्त की अंगना के शरीर आदि कार्य की उत्पत्ति में देवदत्त का धर्माधर्मरूप अदृष्ट निमित्त कारण होता है तो ऐसा हम ( जैन ) भी मानते ही हैं । किन्तु इससे धर्म और अधर्म ( पुण्य और पाप ) आत्मा के गुण हैं ऐसा सिद्ध नहीं होता है । उक्त वाक्य में अपि और एव शब्द ध्यान देने योग्य हैं।
यहाँ आचार्य प्रभाचन्द्र ने ऐसा मान लिया है कि प्रत्येक व्यक्ति का अदृष्ट उसको प्राप्त होने वाली भोग्य सामग्री की उत्पत्ति में कारण होता है । इस विषय में विचारणीय बात यह है कि क्या जैनदर्शन की ऐसी मान्यता है ? जहाँ तक मुझे ज्ञात है जैनदर्शन की ऐसी मान्यता नहीं है । देवदत्त को जो भी भोग्य सामग्री प्राप्त होती है क्या उसकी उत्पत्ति में देवदत्त का कर्म कारण होता है ? मेरी समझ से ऐसा नहीं होता है । इसीलिए आचार्य प्रभाचन्द्र का उक्त अभिमत मुझे विचित्र लग रहा है । इस पर कर्मशास्त्र के विद्वानों को प्रकाश डालना चाहिए । जैनदर्शन की ऐसी मान्यता अवश्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को अनुकूल या प्रतिकूल जो भोग्य सामग्री प्राप्त होती है वह उसके कर्म के कारण प्राप्त होती है ।