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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
वह अभ्रान्त हो जाता । संशयज्ञान के विषयभूत स्थाणु और पुरुषरूप दो. अर्थों का एक स्थान में सद्भाव भी असंभव है । यदि दो अर्थों का एक स्थान में सद्भाव संभव होता तो फिर वहाँ संशय नहीं होता । यतः संशयादि ज्ञान अर्थ के अभाव में भी पाया जाता है अतः अर्थ के अभाव में ज्ञान के अभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है, जिससे ज्ञान अर्थ का कार्य सिद्ध हो सके । इस प्रकार आचार्य प्रभाचन्द्र के अनुसार संशयज्ञान अर्थ के अभाव में भी उत्पन्न हो जाता है ।
किन्तु इस विषय में मेरा मत यह है कि संशयज्ञान अर्थ के अभाव में उत्पन्न नहीं होता है, अपितु अर्थ के होने पर ही उत्पन्न होता है । सामने दृश्यमान वस्तु स्थाणु है अथवा पुरुष है ? इस प्रकार का ज्ञान संशयज्ञान कहलाता है । संशयज्ञान के उत्पन्न होने के समय यद्यपि स्थाणुरूप या पुरुषरूप अर्थ का प्रतिभास नहीं होता है, तथापि वहाँ सामान्यरूप अर्थ अवश्य रहता है । किन्तु प्रकाश की मंन्दता, अल्पदृष्टि, दूरी आदि कुछ विशेष कारणों से यह निश्चय नहीं हो पाता है कि वह स्थाणु है या पुरुष । यथार्थ में दूरी ही विशेषरूप से संशयज्ञान का कारण है । पास में जाने पर तो यह निश्चय हो ही जाता है कि यह स्थाणु है, पुरुष नहीं, अथवा यह पुरुष है, स्थाणु नहीं ।
अतः ऊर्ध्वतासामान्यरूप अर्थ के होने पर ही स्थाणु और पुरुष विषयक संशयज्ञान होता है । इससे यही सिद्ध होता है कि संशयज्ञान अर्थ के होने पर ही होता है, अर्थ के अभाव में नहीं । इसलिए संशयज्ञान के द्वारा अर्थकार्यता में व्यभिचार बतलाना ठीक नहीं मालूम पड़ता है। सूत्रकार ने भी केशोण्डुकज्ञान के द्वारा ही अर्थकार्यता में व्यभिचार बतलाया है, संशयज्ञान के द्वारा नहीं ।
३. भोग्य सामग्री की उत्पत्ति में अदृष्ट कारण नहीं
परिच्छेद ४ के सूत्र संख्या १० में आत्मद्रव्यवाद के प्रकरण में नैयायिक - वैशेषिक ने आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए एक तर्क उपस्थित किया है । वह तर्क इस प्रकार है - प्रत्येक व्यक्ति को जो भोग्य सामग्री प्राप्त होती है उसकी उत्पत्ति में उस व्यक्ति का अदृष्ट (कर्म) कारण होता है । इसी बात को उदाहरण देकर इस प्रकार समझाया गया है