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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
४. क्या धारावाहिक ज्ञान अप्रमाण है ?
यहाँ यह विचारणीय है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण? किसी एक वस्तु के विषय में लगातार अनेक बार होने वाले ज्ञान को धारावाहिक ज्ञान कहते हैं । जैसे यह घट है, यह घट है, इत्यादि प्रकार से लगातार सैकड़ों बार होने वाला घटज्ञान धारावाहिक ज्ञान कहलाता है । नैयायिक-वैशेषिक धारावाहिक ज्ञान को प्रमा। रानते हैं । श्वेताम्बर दार्शनिकों ने भी धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है । किन्तुः दिगम्बर आचार्यों ने धारावाहिक ज्ञान को प्रायः अप्रमाण बतलाया है । इसीलिए प्रमाण के लक्षण में अनधिगत अथवा अपूर्वार्थ विशेषण दिया गया है । प्रमाण का काम यह है कि वह पूर्वार्थ ( पूर्व में जाने हुए अर्थ ) को न जानकर अपूर्व ( नूतन ) अर्थ को जाने । पूर्वार्थग्राही ज्ञान को अप्रमाण मानने में तर्क यह दिया जाता है कि प्रथम ज्ञान के बाद होने वाले द्वितीय आदि ज्ञानों से कोई परिच्छित्तिविशेष नहीं होती है ।
यहाँ विचारणीय बात यह है कि यदि कोई ज्ञान पूर्वार्थ को जानता है तो क्या इतने मात्र से वह अप्रमाण हो जायेगा । पूर्वार्थ को जानने से क्या ज्ञान में कोई दोष उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण उसे अप्रमाण मानना पड़े । क्या पूर्वार्थ को जानना अपराध है ? नहीं ऐसा नहीं है । इसीलिए आचार्य विद्यानन्द का अभिप्राय धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानने का है । उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में लिखा है
गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थं व्यवस्यति ।
तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥ अर्थात् यदि ज्ञान गृहीत ( पूर्वार्थ ) अथवा अगृहीत ( अपूर्वार्थ ) अपने अर्थ का व्यवसाय ( निश्चय ) करता है तो वह न तो लोकव्यवहार में और न शास्त्रोंके परिप्रेक्ष्य में प्रमाणता का परित्याग कर देता है । तात्पर्य यह है कि पूर्वार्थ को जानने पर भी वह प्रमाण ही कहलाता है, अप्रमाण नहीं।
इसी प्रकार अकलंकदेव ने अष्टशती में प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही मानकर भी तत्त्वार्थवार्तिक में गृहीतग्राही ज्ञान में भी प्रामाण्य का समर्थन किया है । उन्होंने अष्टशती में लिखा है
प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।