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षष्ठ परिच्छेद : सूत्र ७४
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अब नय.के विषय में एक विशेष प्रश्न होता है कि नय प्रमाण है या अप्रमाण ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि नय न तो प्रमाण है और न अप्रमाण, किन्तु वह प्रमाण का एक देश है । जैसे घट में भरे हुए समुद्र के जल को न तो समुद्र कह सकते हैं और न असमुद्र, किन्तु वह समुद्र का एक देश है । उसी प्रकार नय भी प्रमाण का एक देश है । यहाँ नय और
और दुर्नय में भेद समझ लेना भी आवश्यक है । प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । नय उन अनन्त धर्मों में से किसी विवक्षित एक धर्म का ग्रहण करके अन्य धर्मों का निराकरण नहीं करता है । इसके विपरीत दुर्नय वह है जो वस्तु के अन्य धर्मों का निरकरण करके केवल एक ही धर्म का अस्तित्व स्वीकार करता है । दुर्नय को नयाभास भी कहते हैं । प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद को बतलाने वाला निम्नलिखित श्लोक ध्यान देने योग्य है
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥ अर्थात् अनेक धर्मात्मक अर्थ का ज्ञान प्रमाण है । अन्य धर्मों की अपेक्षापूर्वक वस्तु के एक धर्म का ज्ञान नय है । और अन्य समस्त धर्मों का निराकरण करके केवल एक धर्म को ग्रहण करना दुर्नय है ।
सप्तभंगी विचार : सप्तभंगी का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया हैप्रश्रवशादेकस्मिन् वस्त्वन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी । अर्थात् प्रश्न के वश से एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध की कल्पना करने को सप्तभंगी कहते हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म का प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षा पूर्वक सात प्रकार से किया जाता है और इस सात प्रकार से प्रतिपादन करने की शैली का नाम सप्तभंगी है । वस्तु के अनन्त धर्मों में अस्तित्व एक धर्म है और नास्तित्व उसका प्रतिपक्षी धर्म है । अपने प्रतिपक्षी नास्तित्व धर्म सापेक्ष अस्तित्व धर्म की अपेक्षा से सप्तभंगी इस प्रकार बनती है-(१) स्यादस्ति घटः, (३) स्यानास्ति घटः, (३) स्यादस्तिनास्ति घटः, (४) स्यादवक्तव्यः घटः, (५) स्यादस्ति अवक्तव्यश्च घटः, (६) स्यान्नास्ति अवक्तव्यश्च घटः और (७) स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यश्च घटः ।