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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
एकलिंगवाले अनेक पर्यायवाची शब्दों में भी पर्याय के भेद से अर्थभेद मानता है । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्द पुल्लिंग हैं । परन्तु इस नय की दृष्टि से इन तीनों शब्दों का अर्थ भिन्न भिन्न है । देवों का राजा शासन करने से शक्र, इन्दन ( ऐश्वर्यभोग ) करने से इन्द्र और पुरों का दारण ( विनाश ) करने से पुरन्दर कहलाता है । शब्दों में पर्याय भेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना समभिरूढनयाभास है । जैसे शक्र, इन्द्र
और पुरन्दर इन तीनों शब्दों का वाच्य एक ही अर्थ मानना। . एवंभूतनय-जो नय क्रिया के आश्रय से अर्थ में भेद का निरूपण करता है वह एवंभूतनय है । समभिरूढ नय की दृष्टि से देवों के राजा के लिए एक ही समय में इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीनों शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है । किन्तु एवंभूत नय कहता है कि जिस समय अर्थ में जो क्रिया हो रही है उसी के आधार से उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए । अर्थात् देवराज जिस समय शासन कर रहा है उसी समय उसे शक्र कहेंगे, दूसरे समय नहीं । इसी प्रकार जब गौ चल रही हो तभी,उसे गौ कहेंगे, बैठे या सोते समय नहीं । 'गच्छतीति गौः' गौ शब्द की ऐसी व्युत्पत्ति होती है और इस व्युत्पत्ति के अनुसार एवंभूतनय गमनरूप क्रिया के करते समय ही गौ को गौ कहता है । किसी क्रिया के काल में उस शब्द का प्रयोग न करना अथवा अन्य क्रिया के काल में उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूतनयाभास है । जैसे किसी व्यक्ति को देवपूजन करते समय अध्यापक कहना अथवा अध्यापन करते समय उसे पुजारी कहना एवंभूतनयाभास है ।
ये सातों नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अल्प विषय वाले हैं । नैगमनय से व्यवहारनय सूक्ष्म है तथा उसका विषय भी अल्प है । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए । ये ही नय अन्त से पूर्व पूर्व में स्थूल और महाविषय वाले हैं । अर्थात् एवंभूतनय सब से सूक्ष्म है और उसका विषय भी अल्पतम है । एवंभूतनय की अपेक्षा से समभिरूढनय स्थल और महाविषयवाला है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व नयों में स्थूलता और महाविषयता जान लेना चाहिए । इन सात नयों में से प्रथम चार नय अर्थप्रधान होने से अर्थनय और शेष-तीन नय शब्दप्रधान होने से शब्दनय कहलाते हैं । नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्य को विषय करने के कारण द्रव्यार्थिक नय और शेष चार नय पर्याय को विषय करने के कारण पर्यायार्थिक नय कहलाते हैं ।