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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अर्थात् स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से घट है तथा परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से घट नहीं है । जब कोई वक्ता घट के अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों को एक साथ कहना चाहे तो वह वैसा कहने में असमर्थ रहता है । इसीलिए घट को स्यात् अवक्तव्य कहा गया है । स्यात् का अर्थ होता है-कथंचित् । अतः घट कथंचित् है, कथंचित् नहीं है और कथंचित् अवक्तव्य है । इसी प्रकार शेष चार भंगों में भी यही प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए । उक्त सात भंगों में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन मूल अंग हैं तथा शेष चार संयोगज भंग हैं । क्योंकि ये मूल भंगों के संयोग से बनते हैं । इस प्रकार सात भंगों के समाहार ( समुदाय ) को सप्तभंगी कहते हैं । कहा भी है
सप्तानां भंगानां समाहारः सप्तभङ्गी । सप्तभंगी के प्रकरण में एक प्रश्न विचारणीय है । वह प्रश्न यह है कि भंग सात ही क्यों होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तत्त्व जिज्ञासु वस्तुतत्त्व के विषय में सात प्रकार के प्रश्न करता है । सात प्रकार के प्रश्न करने का कारण उसकी सात प्रकार की जिज्ञासायें हैं । सात प्रकार की जिज्ञासाओं का कारण उसके सात प्रकार के संशय हैं । और सात प्रकार के संशयों का कारण उनके विषयभूत वस्तुनिष्ठं सात प्रकार के धर्म हैं । इस प्रकार निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वस्तुनिष्ठ अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य आदि सात प्रकार के धर्मों के कारण ही भंग सात ही होते हैं । तथा सातों भंगों को मिलाकर सप्तभंगी बनती है । यहाँ एक प्रश्न और विचारणीय है कि सप्तभंगी कितनी होती हैं ? इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व की तरह विरोधी प्रतीत होने वाले अनन्त धर्मयुगल रहते हैं । अत: जिस प्रकार अस्तित्व
और नास्तित्व धर्मयुगल की अपेक्षा से एक सप्तभंगी बनती है उसी प्रकार नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनन्त धर्मयुगलों की अपेक्षा से वस्तु में अनन्त सप्तभंगियाँ भी बनती हैं या बन सकती हैं ।
प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी : . . सप्तभंगी दो प्रकार की होती है-प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ।