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षष्ठ परिच्छेद: सूत्र ७४
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वादी और प्रतिवादी में से किसी एक की स्वपक्ष सिद्धि ही दूसरे का निग्रह कहलाता है । अर्थात् यदि वादी के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाती है तो इससे प्रतिवादी का निग्रह हो जाता है । और यदि प्रतिवादी के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाती है तो इससे वादी का निग्रह हो जाता है । असाधनांगवचन सेवादीका निग्रह और अदोषोद्भावन से प्रतिवादी का निग्रह मानना ठीक नहीं है । इस कथन का निष्कर्ष यह है कि वादी को अविनाभावी साधन से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करना चाहिए । इसी प्रकार प्रतिवादी को वादी के साधन में यथार्थ दूषण बतलाना चाहिए तथा अपने पक्ष की सिद्धि करना चाहिए । एक की जय तथा दूसरे की पराजय के लिए इतना ही पर्याप्त है । इससे अधिक और किसी बात की आवश्यकता नहीं है । यहाँ एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि आवश्यकता से कुछ अधिक बोलने से या कुछ कम बोलने से भी किसी की जय या पराजय नहीं होती है । कहा भी है
स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात् ।
अर्थात् यदि अपने साध्य को सिद्ध करके कोई व्यक्ति नाचने भी लगे तो इससे उसके पक्ष में कोई दोष नहीं दिया जा सकता है । इस प्रकार यहाँ वाद में संक्षेपरूप से जय-पराजय व्यवस्था का विचार किया गया है ।
अभी तक प्रमाण और प्रमाणाभास का विस्तार से विवेचन हो चुका है । अब आचार्य इनके अतिरिक्त कुछ अन्य विषयों पर विचार करने के लिए सूत्र कहते हैं .
सम्भवदन्यद्विचारणीयम् ॥ ७४ ॥
वस्तुतत्त्व की प्रतिपत्ति के लिए नय, नयाभास, सप्तभंगी और पत्र आदि अन्य जो भी उपाय संभव हैं उनका भी यहाँ विचार कर लेना चाहिए । तदनुसार इस सूत्र की व्याख्या में नय, नयाभास, सप्तभंगी और पत्र के स्वरूप का विचार किया गया है ।
नयविचार
नय और नयाभास का स्वरूप इस प्रकार है
अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । निराकृतप्रतिपक्षस्तु नयाभासः ।