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________________ २३६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ... .. जिसने प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया है और जो वस्तु के एक अंश ( धर्म ) को ग्रहण करता है, ऐसे ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । ज्ञाता वस्तु के उन अनन्तधर्मों में से नय के द्वारा मुख्यरूप से एक धर्म का विचार करता है, किन्तु शेष धर्मों का निराकरण नहीं करके उनका भी अस्तित्व स्वीकार करता है । यही नय है । नयाभास इसके विपरीत होता है । नयाभास में किसी एक धर्म का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है और शेष धर्मों का निरकारण कर दिया जाता है । वहाँ शेष धर्मों की कोई अपेक्षा नहीं रहती है । मूल नय दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय । द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह और व्यवहार । पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । नैगम नय–'तत्रानिष्पन्नार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः' । निगम शब्द से नैगम बना है । संकल्प को निगम कहते हैं । नैगम नय अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करता है । कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिए जंगल को जा रहा है । किसी ने उससे पूछा-कहाँ जा रहे हो ? तब वह कहता है-प्रस्थ लेने जा रहा हूँ । अनाज मापने के पात्र को प्रस्थ कहते हैं । यहाँ अभी प्रस्थरूप पर्याय निष्पन्न नहीं हुई है । वह तो भविष्य में निष्पन्न होगी । किन्तु लाई जाने वाली लकड़ी में वह प्रस्थ बनाने का संकल्प करके उसमें अभी से प्रस्थ का व्यवहार कर रहा है । यही नैगम नय है । यह नय एक ही धर्म को ग्रहण नहीं करता है, किन्तु विधि और प्रतिषेध रूप अनेक धर्मों को मुख्यता और गौणता से ग्रहण करता है । अत: 'नैकं गमः नैगमः' इस प्रकार की इसकी व्युत्पत्ति सार्थक है । नैगम नय न केवल धर्म को विषय करता है, और न केवल धर्मी को विषय करता है किन्तु विवक्षा के अनुसार दोनों को विषय करता है । इसी प्रकार यह नय अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदि में एक की प्रधानता से विवक्षा होने पर दूसरे को गौणरूप से ग्रहण करता है । यह विवक्षानुसार गुण-गुणी आदि में भेद और अभेद दोनों को ही विषय करता है । इसके विपरीत गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदि में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है । संग्रहनय-अविरोधपूर्वक अपनी जाति के समस्त पदार्थों को सत्रूप से अथवा द्रव्यादि रूप से ग्रहण करने वाले नय को संग्रहनय कहते हैं ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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