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षष्ठ परिच्छेद: सूत्र ७३
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। न्यायदर्शन में वाद, जल्प और वितण्डा का जो स्वरूप बतलाया गया है वह इस प्रकार है ।
वाद का स्वरूप :
प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः ।
प्रमाण और तर्क से जहाँ साधन और दूषण बतलाया जाता है, जो सिद्धान्त से अविरोधी है और जो अनुमान के पाँच अवयवों से सहित होता है ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष का स्वीकार करना वाद कहलता है ।
जल्प का स्वरूप :
यथोक्तोपपन्नः छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभो जल्पः ।
जल्प का लक्षण वाद के समान ही है । यहाँ इतनी विशेषता है कि जल्प में प्रमाण और तर्क के अतिरिक्त छल, जाति और निग्रहस्थान के द्वारा भी पक्ष की सिद्धि की जाती है और प्रतिपक्ष में दूषण दिया जाता है ।
वितण्डा का स्वरूप :
स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।
वितण्डा में प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं की जाती है । अर्थात् इसमें केवल पक्ष ही होता है, प्रतिपक्ष नहीं । शेष सब बातें जल्प के समान होती हैं । वितण्डा में प्रतिपक्ष नहीं होने का तात्पर्य यह है कि वादी ने जो अपना पक्ष प्रस्तुत किया है, प्रतिवादी केवल उसी का खण्डन करता है । वह वादी के पक्ष के विरुद्ध प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं करता है ।
न्यायदर्शन में छल, जाति और निग्रहस्थान का स्वरूप तथा उनके भेद उदाहरण पूर्वक बतलाये गये हैं जो इस प्रकार हैं ।
. छल का लक्षण :
वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलम् ।
अर्थ में विकल्प उत्पन्न करके किसी के वचन का व्याघात करना छल कहलाता है । छल के तीन भेद हैं- वाक्छल, सामान्य छल और उपचार छल । सामान्य रूप से किसी अर्थ के कहने पर वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करना वाक्छल है । जैसे किसी ने कहा कि