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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन के स्वरूप को नहीं जानने वाले प्रतिवादी ने अपनी अज्ञानता के कारण वादी के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण को प्रमाणाभास बतला दिया । तब यदि वादी अपने पक्ष में दिये गये दोषों का परिहार कर देता है तो वह उसके लिए साधन और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जाता है । अर्थात् उस समय वार्द की जय और प्रतिवादी की पराजय होती है । इसके विपरीत प्रमाण औ प्रमाणाभास के स्वरूप को न जानने वाले वादी ने अपने पक्ष की सिद्धि के लिए प्रमाणाभास प्रस्तुत कर दिया तथा प्रमाण और प्रमाणाभास को ठीक तरह से जानने वाले प्रतिवादी ने वादी के द्वारा प्रस्तुत प्रमाणाभास को प्रमाणाभास बतला दिया । तब यदि वादी अपने पक्ष में दिये गये दोष का परिहार नहीं कर पाता है तो वह उसके लिए साधनाभास और प्रतिवादी के लिए भूषण हो जाता है । अर्थात् उस समय वादी की पराजय और प्रतिवादी की जय होती है । 1 २३० जय-पराजयव्यवस्था विचार जैन न्याय में कथा (चर्चा) दो प्रकार की मानी गई है - वीतरागकथा और विजिगीषुकथा । रागद्वेषरहित गुरु-शिष्यों में अथवा विशिष्ट विद्वानों में तत्त्व निर्णय के लिए जो चर्चा होती है वह वीतराग कथा है । इसके विपरीत वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष की सिद्धि के लिए जय-पराजय पर्यन्त जो वचन व्यापार होता है वह विजिगीषुकथा कहलाती है । जैनदर्शन में विजिगीषु कथा को वाद कहा गया है । यौग वीतराग कथा को वाद कहते हैं । किन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि गुरु-शिष्यों की चर्चा को कोई वाद नहीं कहता है । न्यायदर्शन ने वाद में छल, जाति और निग्रहस्थान का प्रयोग उचित नहीं माना है, किन्तु जल्प और वितण्डा में छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असत् उपायों का अवलम्बन लेना उचित माना है । क्योंकि जल्प और वितण्डा का उद्देश्य तत्त्वसंरक्षण करना है और तत्त्व का संरक्षण किसी भी उपाय से करने में कोई आपत्तिजनक बात नहीं मानी गई है । नैयायिकों ने जब जल्प और वितण्डा में छल, जाति और निग्रहस्थान का प्रयोग स्वीकार कर लिया तो फिर वाद में भी उन्हीं के आधार पर जय-पराजय की व्यवस्था बन गई । वाद, जल्प और वितण्डा ये तीनों शास्त्रार्थ में जीतने के इच्छुक लोगों के लिए बतलाये गये
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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