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________________ २२९ षष्ठ परिच्छेद : सूत्र ७०-७३ है कि यह इसी आत्मा के प्रमाण का फल है और अन्य आत्मा के प्रमाण का यह फल नहीं है । इसलिए प्रमाण से फल को सर्वथा भिन्न मानना ठीक नहीं है । उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यही है कि प्रमाण से फल को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न भानना चाहिए । ऐसा मानना ही श्रेयस्कर है। स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण व्यवस्था अब आचार्य स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण की व्यवस्था को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंप्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहतापरिहतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥७३॥ इस सूत्र का अर्थ यह है कि वाद के समय वादी ने पहले प्रमाण को प्रस्तुत किया । तदनन्तर प्रतिवादी ने उसमें दोष बतलाकर उसका उद्भावन कर दिया । उसके बाद यदि वादी ने उस दोष का परिहार कर दिया तो वह वादी के लिए साधन हो जायेगा और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जायेगा । इसी प्रकार जब वादी ने पहले प्रमाणाभास को प्रस्तुत किया और प्रतिवादी ने उसमें दोष बतलाकर उसका उद्भावन कर दिया । तदनन्तर यदि वादी उस दोष का परिहार नहीं कर पाया तो वह वादी के लिए साधनाभास हो जायेगा और प्रतिवादी के लिए भूषण हो जायेगा । वाद के समय जो पहले अपने पक्ष को स्थापित करता है वह वादी कहलाता है और जो वादी के द्वारा स्थापित पक्ष का प्रतिवाद करता है वह प्रतिवादी कहलाता है । जो अपने पक्ष में प्रदत्त दूषणों का परिहार करके अपने पक्ष को निर्दोष सिद्ध कर देता है वाद में उसकी जय होती है और जो वैसा नहीं कर पाता है उसकी पराजय होती है। - प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप बतलाया जा चुका है । यदि वादी और प्रतिवादी ने प्रमाण तथा प्रमाणाभास के स्वरूप को ठीक तरह से जान लिया है तो यह जय का कारण होता है । और यदि उन्होंने प्रमाण तथा प्रमाणाभास के स्वरूप को ठीक तरह से नहीं समझा है तो यह पराजय का कारण होता है । प्रमाण और प्रमाणाभास के ज्ञाता वादी ने स्वपक्ष की सिद्धि के लिए प्रमाण प्रस्तुत किया । तथा प्रमाण और प्रमाण
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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