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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
प्रकार प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति से उसमें अप्रमाणत्व का प्रंसग भी आयेगा . ही और इसका निरकारण संभव नहीं है ।
प्रमाण और फल में भेद वास्तविक है, इसे बतलाने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं
तस्माद् वास्तवो भेदः ॥ ७० ॥
इसलिए प्रमाण और फल में भेद वास्तविक है । व्यावृत्ति के द्वारा प्रमाण और फल में भेद की कल्पना करना ठीक नहीं है । परन्तु उनमें वास्तविक भेद मानना ही युक्तिसंगत है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रमाण और फल में सर्वथा भेद नहीं है किन्तु कथंचित् भेद है ।
प्रमाण और फल में सर्वथा भेद मानने में क्या दोष है इसे आगे के सूत्र में बतलाते हैं—
भेदे त्वात्मान्तरवत् तदनुपपत्तेः ॥ ७१ ॥
प्रमाण के फल को प्रमाण से सर्वथा भिन्न मानने पर इस प्रमाण का यह फल है ऐसा व्यवहार नहीं बन सकता है। जिस प्रकार दूसरी आत्मा के प्रमाण का फल हमारी आत्मा के प्रमाण का फल नहीं हो सकता है, उसी प्रकार हमारी आत्मा के प्रमाण का फल भी हमारा नहीं हो सकेगा । क्योंकि दोनों में सर्वथा भेद समान है ।
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योग उपर्युक्त दोष का निराकरण समवाय सम्बन्ध से करते हैं । वे कहते हैं कि जिस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से प्रमाण रहता है उसी आत्मा में समवाय सम्बन्ध से फल भी रहता है । इस प्रकार एक ही आत्मा में प्रमाण और फल की व्यवस्था बन जाती है । तब यह प्रसंग नहीं आता है कि जिस प्रकार दूसरी आत्मा के प्रमाण का फल हमारा नहीं है उसी प्रकार हमारी आत्मा के प्रमाण का फल भी हमारा नहीं होगा ।
यौगों के इस कथन में क्या दोष है इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते
समवायेऽतिप्रसङ्गः ॥७२॥
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समवाय के मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है । यौगों के अनुसार समवाय एक, नित्य और व्यापक है । तब समवाय का सम्बन्ध सभी आत्माओं में समानरूप से होगा । ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता