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________________ २२६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन एकान्तरूप अर्थ सहकारी कारणों के सान्निध्य में कार्य करता है । जब सहकारी कारण मिल जाते हैं तब वह कार्य करता है और सहकारी कारणों के अभाव में कार्य नहीं करता है । एकान्तवादी के इस मत में दोष बतलाने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदघटनात् ॥६४॥ सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर उस एकान्तरूप अर्थ को परिणामी मानना पड़ेगा । अन्यथा वह कार्य नहीं कर सकता है । अर्थात् परिणामी हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता है । परिणामी का अर्थ है-पूर्व आकार का परित्याग, उत्तर आकार का उपादान और दोनों अवस्थाओं में किसी एक द्रव्य का ध्रौव्यरूप से अवस्थित रहना । अतः सहकारी कारणों की अपेक्षा से कार्य करने वाले द्रव्य में परिणमन मानना आवश्यक है । इसके बिना वह कभी भी कार्य नहीं कर सकता है । द्रव्य में किसी प्रकार का परिणमन न मानने पर जिस प्रकार घट प्रागभाव अवस्था में अकार्यकारी था उसी प्रकार उत्तर अवस्था में भी अकार्यकारी ही रहेगा । क्योंकि उसमें कोई परिणमंन तो हुआ ही नहीं। यदि एकान्तरूप अर्थ कार्य करने में स्वयं असमर्थ, है तो इस पक्ष में दोष बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात् पूर्ववत् ॥६५॥ जो एकान्तरूप अर्थ कार्य करने में स्वयं असमर्थ है वह सहकारी कारणों के मिल जाने पर भी कार्य नहीं कर सकता है । जिस प्रकार वह सहकारी कारणों से रहित अवस्था में कार्य करने के लिए असमर्थ था उसी प्रकार सहकारी कारणों के मिल जाने पर भी असमर्थ ही रहेगा । क्योंकि उसमें कार्य करने की शक्ति ही नहीं है । इस प्रकार विषयाभास का विवेचन समाप्त हुआ । फलाभास: अब फलाभास को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंफलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा ॥६६॥
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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