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________________ षष्ठ परिच्छेद : सूत्र ५९-६३ २२५ प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है । प्रमाण का विषय न केवल सामान्य है और न केवल विशेष है । तथा दोनों स्वतन्त्र रह कर भी प्रमाण के विषय नहीं होते हैं । ___सांख्य केवल सामान्य को प्रमाण का विषय मानते हैं तथा बौद्ध केवल विशेष को प्रमाण का विषय मानते हैं । नैयायिक और वैशेषिक सामान्य और विशेष को स्वतन्त्र पदार्थ मानकर उनको प्रमाण का विषय मानते हैं । उनका ऐसा मानना विषयाभास है । क्योंकि सामान्य और विशेष में तादात्म्य पाया जाता है । वे दोनों तो वस्तु की आत्मा ( स्वरूप ) हैं । उन दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता है । ऐसा तादात्म्यरूप सामान्य-विशेष ही प्रमाण का विषय होता है । अतः केवल सामान्य, केवल विशेष और दोनों स्वतन्त्र रह कर प्रमाण के विषय नहीं होते हैं । प्रमाण के विषय को केवल सामान्यरूप मानने में, केवल विशेषरूप मानने में तथा दोनों को स्वतन्त्र मानने में विषयाभास क्यों होता है, इस बात . को आगे के सूत्र में बतलाया गया है- तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ॥६२॥ केवल सामान्य का अथवा केवल विशेष का तथा दोनों का स्वतन्त्र प्रतिभास नहीं होता है । केवल सामान्यरूप और केवल विशेषरूप अर्थ अपना कार्य भी नहीं कर सकता है । इसलिए वे विषयाभास हैं । वास्तव में तादात्म्य अवस्था को प्राप्त सामान्य-विशेषरूप अर्थ का ही ज्ञान में प्रतिभास होता है और सामान्य-विशेषरूप अर्थ ही अर्थक्रिया करता है । जो एकान्तवादी एकान्तरूप अर्थ को कार्य करने वाला मानता है उससे हम पूछना चाहते हैं कि एकान्तरूप अर्थ कार्य करने में स्वयं समर्थ है अथवा असमर्थ है ? प्रथम पक्ष में दूषण बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥६३॥ यदि वह एकान्तरूप अर्थ कार्य करने में स्वयं समर्थ है तो कार्य की उत्पत्ति सर्वदा होनी चाहिए । क्योंकि वह कार्य करने में अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखता है । तब कार्य की उत्पत्ति सर्वदा क्यों नहीं होती है । . इस दोष को दूर करने के लिए एकान्तवादी कह सकता है कि .
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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