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षष्ठ परिच्छेद: सूत्र ५४-५८
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द्वारा संभव नहीं हैं । परलोक का निषेध तो अनुपलब्धिहेतुजन्य अनुमान से होता है और पर पुरुष में बुद्धि की सिद्धि कार्यहेतुजन्य अनुमान से होती है । इस प्रकार चार्वाक को अनुमान प्रमाण मानना ही पड़ता है । अतः केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना संख्याभास है ।
अन्यवादियों के मत में भी संख्याभास बतलाने के लिए सूत्र कहते
हैं
सौगतसांख्ययौगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावैरेकैकाधिकैर्व्याप्तिवत् ॥ ५७ ॥
सौगत, सांख्य, यौग, प्राभाकर और जैमिनीयों के द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन एक-एक अधिक प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता है । इसका तात्पर्य यह है कि बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं । सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण मानते हैं । यौग ( नैयायिक - वैशेषिक ) प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान ये चार प्रमाण मानते हैं । प्राभाकर प्रत्यक्ष, अनुमान, आर्गम, उपमान और अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते हैं । और जैमिनीय उक्त पाँच प्रमाणों में अभाव को मिलाकर छह प्रमाण मानते हैं । परन्तु इन वादियों द्वारा क्रमशः एक एक अधिक प्रमाण मानने पर भी इन सभी प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता है । व्याप्ति का ग्रहण तो तर्क प्रमाण से होता है । अतः तर्क प्रमाण को न मानने के कारण बौद्ध आदि सभी वादियों के द्वारा अभिमत प्रमाणसंख्या विघटित हो जाती है । और इसी कारण उनके द्वारा अभिमत प्रमाणों की संख्या यथार्थ नहीं है, किन्तु संख्याभास है ।
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यदि चार्वाक परलोक का निषेध तथा अन्य पुरुष में बुद्धि की सिद्धि अनुमान प्रमाण से करना स्वीकार करता है तो उसे अनुमान प्रमाण मानने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी बात को आगे के सूत्र में बतलाया गया है
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अनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥५८॥
अनुमान आदि को परलोक के निषेध का और अन्य पुरुष में बुद्धि 'का विषय करने वाला मानने पर प्रमाणान्तर मानने का प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् यदि चार्वाक परलोक के निषेध के लिए तथा अन्य पुरुष में बुद्धि