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षष्ठ परिच्छेद : सूत्र ५-९
२०९ तो अनुमानाभास है । उसी प्रकार जो ज्ञान अविशद और अनिश्चयात्मक है वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । वह तो निश्चित ही प्रत्यक्षाभास है ।
परोक्षाभास का स्वरूप वैशोऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥७॥
विशद ज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है । जैसे मीमांसक करणज्ञान को परोक्ष मानते हैं, तो उनका ऐसा मानना परोक्षाभास है ।
प्रथम परिच्छेद में सूत्र संख्या ९ में बतलाया गया है कि कर्म ( घटादि) की तरह कर्ता, करण और क्रिया की भी प्रतीति ( विशद ज्ञान ) होती है । मैं ज्ञान के द्वारा घट को जानता हूँ । यहाँ ज्ञान करण है । प्रमिति की उत्पत्ति होने में जो साधकतम कारण होता है उसे करण कहते हैं । घट का ज्ञान होने में ज्ञान करण होता है, मैं ( आत्मा ) कर्ता है और प्रमिति को क्रिया कहते हैं । अतः प्रमाण के द्वारा जिस प्रकार घट का प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार कर्ता, करण और क्रिया का भी प्रत्यक्ष होता है । परन्तु मीमांसक करणज्ञान को परोक्ष मानते हैं । उनके यहाँ ज्ञान को स्वभाव से ही परोक्ष माना गया है । वास्तव में करणज्ञान विशद होने के कारण प्रत्यक्ष है । फिर भी उसे परोक्ष कहना परोक्षाभास हैं ।
स्मरणाभास का स्वरूप अतस्मिंस्तदितिज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा ॥८॥
जिस पुरुष का कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ उसमें 'वह' इस प्रकार के ज्ञान को स्मरणाभास कहते हैं । जैसे जिनदत्त में वह देवदत्त' इस प्रकार का स्मरण स्मरणाभास है । पहले कभी जिनदत्त का प्रत्यक्ष हुआ था और आज तक देवदत्त का कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ । किन्तु आज जिनदत्त के स्थान में देवदत्त का स्मरण हो रहा है । यह स्पष्टरूप से स्मरणाभास है । .
प्रत्यभिज्ञानाभास का स्वरूप . सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदिति प्रत्यभिज्ञाना. भासम् ॥९॥
सदृश वस्तु में यह वही है' ऐसा जानना और उसी वस्तु में 'यह