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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
प्रमाण नहीं है, स्थाणुपुरुष के ज्ञान की तरह । ये सभी ज्ञान अपने विषय के उपदर्शक न होने के कारण प्रमाणाभास हैं ।
नैयायिक-वैशेषिक सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं । परन्तु सन्निकर्ष प्रमाण न होकर प्रमाणाभास है । इसी बात को आगे के सूत्र में बतलाया जा रहा है
चक्षूरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥ ५ ॥
द्रव्य में चक्षु और रस के संयुक्त समवाय के समान । अर्थात् जिस प्रकार घटादि द्रव्य में चक्षु और रूप का संयुक्तसमवायं सम्बन्ध है, उसी प्रकार चक्षु और रस का भी संयुक्तसमवाय सम्बन्ध है । फिर चक्षु के द्वारा रस का ज्ञान क्यों नहीं होता है ।
इस कथन का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि नैयायिक ऐसा मानते हैं कि घटादि द्रव्य में रूप, रस आदि गुण समवाय सम्बन्ध से रहते हैं । घट चक्षु से संयुक्त है और उस घट में रूप का समवाय है । अतः चक्षु का रूप के साथ जो सम्बन्ध है वह संयुक्तसमवाय सम्बन्ध कहलता है । इसी प्रकार चक्षु का रस के साथ भी संयुक्तसमवाय सम्बन्ध है । रस भी समवाय सम्बन्ध से घट में रहता है । फिर क्या कारण है कि चक्षु के द्वारा रूप का ज्ञान तो होता है किन्तु रस का ज्ञान नहीं होता । इसका मतलब यही है कि सन्निकर्ष प्रमाण न होकर प्रमाणाभास है ।
प्रत्यक्षाभास का स्वरूप
अवैशद्ये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्धूमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥ ६॥
अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है । बौद्धों के द्वारा माना गया निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास है । जैसे व्याप्ति के गृहण, स्मरण आदि के बिना अकस्मात् धूमदर्शन से होने वाला वह्नि का ज्ञान अनुमान न होकर अनुमानाभास है ।
अनुमान तभी प्रमाण होता है जब पूर्वगृहीत व्याप्ति का स्मरण हो तथा यह धूम ही है, वाष्प नहीं है, ऐसा निश्चय हो । इसके बिना अकस्मात् धूमदर्शन से उत्पन्न हुआ अग्नि का ज्ञान अनुमान नहीं कहला सकता है, वह
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