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षष्ठ परिच्छेद
इस परिच्छेद में प्रमाणाभास, प्रत्यक्षाभास, अनुमानाभास आदि तदाभासों का विवेचन किया गया है । इसी बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं
ततोऽन्यत् तदाभासम् ॥१॥ पहले के परिच्छेदों में प्रतिपादित प्रमाण का स्वरूप, संख्या, विषय और फल से जो भिन्न है वह तदाभास कहलाता है ।
प्रमाण से जो भिन्न है वह प्रमाणाभास है, संख्या से भिन्न को संख्याभास, विषय से भिन्न को विषयाभास.और फल से भिन्न को फलाभास कहते हैं । जो प्रमाण के लक्षण से रहित है किन्तु प्रमाण जैसा प्रतिभासित होता है वह प्रमाणाभास है । इसी प्रकार अन्य आभासों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
प्रमाणाभास का स्वरूप अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः ॥२॥
अस्वसंवेदी ज्ञान, गृहीतार्थग्राही ज्ञान, दर्शन, संशय आदि ये सब ज्ञान प्रमाणाभास हैं।
प्रथम परिच्छेद में बतलाया गया है कि स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । अतः इस प्रकार के ज्ञान से भिन्न जो ज्ञान है वह प्रमाणाभास है । प्रमाणभूत ज्ञान स्वसंवेदी होता है । जो ज्ञान स्वसंवेदी न होकर अस्वसंवेदी है वह प्रमाण की कोटि से बाहर है । प्रमाण के लक्षण में एक विशेषण है-अपूर्वार्थ । इसका तात्पर्य यह है कि प्रमाण को अगृहीत अर्थ का ग्राहक होना चाहिए । अतः जो ज्ञान गृहीत अर्थ का ग्राहक है वह प्रमाणाभास है । सूत्र में दर्शन शब्द से तात्पर्य बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान से है । अनिश्चयात्मक होने के कारण वह प्रमाणाभास है । यह स्थाणु है अथवा पुरुष है, इत्यादि प्रकार से जो अनिर्णीत ज्ञान होता है वह संशय कहलाता है । अनिश्चयात्मक होने के कारण संशय भी प्रमाणाभास है । क्योंकि प्रमाण को व्यवसायात्मक होना चाहिए । सूत्र में आदि शब्द से विपर्ययज्ञान और अनध्यवसायरूप ज्ञान का ग्रहण करना चाहिए । उक्त सभी ज्ञान प्रमाणाभास हैं ।