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पंचम परिच्छेद: सूत्र १ - ३
प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च ॥ २ ॥
प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् अभिन्न है और कथंचित् भिन्न है । प्रमाण से प्रमाण का फल न तो सर्वथा अभिन्न है और न सर्वथा भिन्न
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आचार्य प्रभाचन्द के अनुसार अज्ञाननिवृत्ति प्रमाण से अभिन्न रहती है । इसलिए वह प्रमाण से अभिन्न फल है । तथा हान, उपादान और उपेक्षा ये तीन प्रमाण से भिन्न फल हैं । यथार्थ में अज्ञाननिवृत्ति प्रमाण से कथंचित् अभिन्न फल है । प्रमाण और अज्ञाननिवृत्ति में सर्वथा अभेद मानने पर वे दोनों एक हो जायेंगे और तब यह प्रमाण है और यह फल है ऐसा व्यवहार नहीं बन सकेगा । इसी प्रकार हान, उपादान और उपेक्षा ये तीनों प्रमाण से कथंचित् भिन्न फल हैं, सर्वथा भिन्न नहीं । उनमें सर्वथा भेद मानने पर यह इस प्रमाणं का फल है ऐसा व्यादेश कैसे होगा ? इसी बात को स्पष्ट करने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं
यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥ ३ ॥
जो पुरुष प्रमाण से वस्तु को जानता है उसी का अज्ञान निवृत्त होता है, वही अनिष्ट वस्तु का त्याग करता है, इष्ट वस्तु का उपादान करता है. और उपेक्षणीय वस्तु की उपेक्षा करता है ।
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि प्रमाण और फल में कथंचित् भेद और कंथचित् अभेद है । उनमें न तो सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद है । सर्वथा भेद मानने पर उनमें यह प्रमाण है और यह फल है ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती है और सर्वथा अभेद मानने में भी यही दोष आता है । अत: प्रमाण और फल में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानना ही श्रेयस्कर है । अनेकान्त सिद्धान्त भी यही कहता है ।
• पंचम परिच्छेद समाप्त •