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________________ चतुर्थ परिच्छेद: सूत्र ९ २०१ युतसिद्ध और अयुतसिद्ध का अर्थ क्या है । जो पदार्थ पृथक् पृथक् आश्रयों में रहते हैं उन्हें युतसिद्ध कहते हैं । जैसे घट और पट युतसिद्ध हैं । इनमें समवाय सम्बन्ध नहीं होता है, किन्तु संयोग सम्बन्ध होता है । अयुतसिद्ध पदार्थ वे हैं जिनका आश्रय पृथक् पृथक् नहीं होता है, परन्तु अपृथक् एक ही आश्रय होता है । ऐसे अयुतसिद्ध पदार्थों में समवाय सम्बन्ध होता है । जैसे तन्तु और पट में समवाय सम्बन्ध है । तन्तु अवयव है और पट अवयवी है । इन तन्तुओं में पट है, ऐसा ज्ञान समवाय सम्बन्ध के कारण ही होता है । ऐसा वैशेषिकों का कथन है । वैशेषिकों ने तन्तु और पट का पृथक् पृथक् आश्रय नहीं माना है, परन्तु अपृथक् एक ही आश्रय माना है । किन्तु ऐसा है नहीं । हम बतलाना चाहते हैं कि तन्तु और पट का आश्रय भी पृथक् पृथक् ही है । तन्तुओं का आश्रय तो तन्तुओं के अंशु ( कार्पास के रेशे ) हैं और पट का आश्रय तन्तु हैं । अतः तन्तु और पट का एक ही आश्रय नहीं है । अपृथक् ( एक ही ) आश्रय में जो रहते हैं उन्हें अयुत सिद्ध कहते हैं, ऐसा लक्षण मानने पर गुण, कर्म और सामान्य को भी अयुतसिद्ध मानना पड़ेगा. । क्योंकि ये तीनों एक ही द्रव्य के आश्रय में रहते हैं और यदि ये अयुतसिद्ध हैं तो इनका परस्पर में समवाय सम्बन्ध स्वीकार करना पड़ेगा, जो स्वयं वैशेषिकों को भी इष्ट नहीं है । 1 वैशेषिक अयुतसिद्ध पदार्थों में जो समवाय सम्बन्ध की कल्पना करते हैं वह प्रमाणसंगत नहीं है । यथार्थ बात तो यह है कि अवयव - अवयवी, गुण-गुणी आदि पदार्थों में तादात्म्य सम्बन्ध रहता है और इस सम्बन्ध को मान लेना ही सबके लिए श्रेयस्कर है। वैशेषिक समवाय को एक मानते हैं किन्तु वह एक न होकर अनेक है । क्योंकि वह भिन्न देश, भिन्न काल और भिन्न आकार वाले पदार्थों में एक साथ रहता है । अतः संयोग की तरह समवाय भी अनेक है । वैशेषिक समवाय को नित्य तथा I 1 अनाश्रित मानते हैं । क्योंकि यदि समवाय को किसी के आश्रित मानें तो आश्रय के नष्ट हो जाने पर समवाय भी नष्ट हो जायेगा । किन्तु यह सब कथन युक्तिसंगत नहीं है । समवाय न तो नित्य है और न अनाश्रित है । समवाय एक सम्बन्ध है । अतः सयोग की तरह वह भी अनित्य है । समवाय दो पदार्थों में रहता है । इसलिए वह दो पदार्थों के आश्रित ही रहेगा । वह अनाश्रित कैसे हो सकता है । इत्यादि प्रकार से विचार करने
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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