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________________ चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९ १९९ विशेषपदार्थविचार . पूर्वपक्ष वैशेषिक विशेष को एक पृथक् पदार्थ मानते हैं । इसी विशेष पदार्थ को मानने के कारण उनका नाम वैशेषिक प्रसिद्ध हुआ । विशेष नित्य और अनेक हैं । विशेष पदार्थ नित्य द्रव्यों में रहता है । विशेष पदार्थ का काम है-एक समान पदार्थों में भेद की प्रतीति कराना । पृथिवी के सब परमाणु समान हैं, फिर भी एक परमाणु से दूसरा परमाणु भिन्न है । क्योंकि प्रत्येक परमाणु में पृथक् पृथक् विशेष पदार्थ रहता है । इस कारण प्रत्येक परमाणु की पृथक् पृथक् प्रतीति होती है । इसी प्रकार सब आत्मायें समान हैं, किन्तु प्रत्येक आत्मा में विशेष पदार्थ रहता है । इसलिए एक आत्मा से दूसरी आत्मा की पृथक् प्रतीति होती है । यही बात मन के विषय में भी है । प्रत्येक मन में एक विशेष पदार्थ रहता है । वह एक मन को दूसरे मन से व्यावृत्त करता है । विशेषों के विषय में एक विशेष बात यह है कि ये स्वतः व्यावतर्क होतें हैं । अर्थात् एक विशेष से दूसरे विशेष में भेद स्वतः ही होता है । इस काम के लिए किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार एक परमाणु से दूसरे परमाणु में भेद कराने के लिए विशेष पदार्थ माना गया है, उसी प्रकार एक विशेष से दूसरे विशेष में भेद कराने के लिए किसी अन्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि एक विशेष स्वयं ही दूसरे विशेष से भेद कराने में सक्षम है । ऐसा वैशेषिकों का सिद्धान्त है। उत्तरपक्ष · वैशेषिकों के द्वारा माना गया विशेष पदार्थ सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि विशेष नित्य द्रव्यों में रहते हैं । क्योंकि सर्वथा नित्य कोई द्रव्य नहीं है । संसार के समस्त पदार्थ कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य हैं । जितने परमाणु आदि नित्य पदार्थ हैं वे सब अपने असंकीर्ण स्वभाव ( दूसरे पदार्थों से सर्वथा पृथक् स्वभाव ) में अवस्थित हैं और इसी स्वभाव के कारण वे दूसरे पदार्थों से व्यावृत्त हो जाते हैं । अतः उनमें परस्पर में व्यावृत्ति कराने के लिए पृथक् विशेष पदार्थ मानने की कोई
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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