________________
चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
१९७ में रहता है । ऐसा कथन सर्वथा गलत है । जल और अग्नि में गन्ध तथा रसादि गुण भी पाये जाते हैं । पृथिवी में रस गुण भी पाया जाता है । यथार्थ में पुद्गल द्रव्य में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं और पृथिवी आदि चारों पुद्गल के ही विकार ( अवस्थाविशेष ) हैं । तब पृथिवी में ही गन्ध गुण पाया जाता है, इत्यादिप्रकार से रूपादि गुणों का प्रतिनियम कैसे किया जा सकता है ? जैनदर्शन के अनुसार पृथिवी आदि चारों में रूपादि चारों गुण नियम से पाये जाते हैं । - सुख, दुःख, इच्छा आदि ९ गुणों को आत्मा का विशेष गुण माना गया है । यहाँ प्रश्न यह है कि ये गुण अबुद्धिरूप हैं या बुद्धिरूप । यदि ये गुण अबुद्धिरूप हैं तो ये आत्मा के गुण नहीं हो सकते हैं । जैसे कि रूप, रसादि अबुद्धि रूप होने से आत्मा के गुण नहीं है । यदि ये गुण बुद्धिरूप हैं तो फिर इनका बुद्धि में ही अन्तर्भाव हो जायेगा । तब इनको बुद्धि से पृथक् मानना व्यर्थ है । स्नेह गुण जल में ही पाया जाता है, यह कथन भी गलत है । क्योंकि घृत, तेल आदि में भी स्नेह गुण विद्यमान रहता है । धर्म, अधर्म और शब्द को गुण मानना प्रमाण विरुद्ध है । धर्म-अधर्म को अदृष्टरूप ( कर्मरूप ) माना गया है और कर्मरूप होने से ये पौद्गलिक हैं । तथा पौगलिक होने से इनको गुण नहीं कहा जा सकता है । जैसे परमाणु गुण नहीं है । शब्द भी पौद्गलिक होने से आकाश का गुण सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार गुण पदार्थ के विषय में वैशेषिकों की जो कल्पना है वह प्रमाणसंगत नहीं है । .
. कर्मपदार्थविचार पूर्वपक्ष- ..
वैशेषिक कर्म को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं । यह कर्म अदृष्टरूप नहीं है किन्तु उससे भिन्न एक पदार्थ है । यह कर्म पदार्थों में संयोग और विभाग का कारण होता है । कर्म के पाँच भेद हैं-उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन । गुरुत्व और प्रयत्न के द्वारा किसी वस्तु का ऊपर के प्रदेशों के साथ संयोग और नीचे के प्रदेशों के साथ विभाग होने का नाम उत्पेक्षण है । इसी बात को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि किसी वस्तु को ऊपर की ओर फेकना उत्क्षेपण है, । गुरुत्व और प्रयत्न के