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________________ चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९ १९५ होती है । इसका कारण यह है कि मन अणुरूप है । इसलिए जिस इन्द्रिय के साथ मन का सम्बन्ध होता है उसी के द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है । मन के अणुरूप होने के कारण एक बार एक ही इन्द्रिय के साथ मन का सम्बन्ध होता है । यही कारण है कि सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा एक साथ रूपादि सब विषयों का ज्ञान नहीं होता है । मन अनेक हैं और प्रत्येक आत्मा में एक मन रहता है । वैशेषिक इस प्रकार मन की सिद्धि करते हैं । वैशेषिकों का उक्त कथन समीचीन नहीं है । उन्होंने जैसा मन बतलाया है उसका साधक कोई प्रमाण नहीं है । यह कहना भी गलत है कि एक साथ सब इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान नहीं होता है । क्योंकि दीर्घ शष्कुली ( खाने का एक विशेष पदार्थ ) के भक्षण के समय एक साथ रूपादि पाँचों ज्ञानों की उत्पत्ति अनुभव में आती है । इसका तात्पर्य यह है कि शष्कुली के खाने के समय चक्षु से उसके रूप की प्रतीति, स्पर्शन से स्पर्श की प्रतीति, रसना से रस की प्रतीति, घ्राण से गन्ध की प्रतीति और उसके खाते समय चट-चट की आवाज होने के कारण कर्ण से शब्द की प्रतीति होती है । उस समय रूपादि विषयों के पाँचों ज्ञान एक साथ अनुभव में आते हैं । तब एक बार एक ही इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान होता है, ऐसी बात सिद्ध नहीं होती है । एक बात और भी है कि जब मन का चक्षु इन्द्रिय के साथ सम्बन्ध होने से रूप ज्ञान होता है उस समय सुखादि का मानस संवेदन भी होता है । क्योंकि जिस प्रकार मन का इन्द्रिय के साथ सम्बन्ध होता है उसी प्रकार आत्मा के साथ भी मन का सम्बन्ध सदा रहता ही है । अतः रूपज्ञान और सुखज्ञान एक साथ होने में कोई बाधा नहीं है । इसका मतलब यह है कि एक साथ एक से अधिक ज्ञान होते हैं । इस प्रकार वैशेषिकों के द्वारा अभिमत मन द्रव्य की सिद्धि नहीं होती है । जैनमत के अनुसार मन के दो भेद हैं-द्रव्यमन और भावमन । इनमें से द्रव्यमन पौगलिक है और भावमन चेतन आत्मरूप है । अतः जैनदर्शन में मन कोई पृथक् द्रव्य नहीं है । गुणपदार्थविचार पूर्वपक्ष___वैशेषिकदर्शन में २४ गुण माने गये हैं जो इस प्रकार हैं-रूप, रस,
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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