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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
१९३ कारण नहीं होता है । थोड़ी देर के लिए हम यह मान भी लें कि देवदत्त का अदृष्ट देवदत्त की अंगना के शरीर की उत्पत्ति में कारण होता है, फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि देवदत्त की अंगना के शरीर की उत्पत्ति के स्थान में देवदत्त के अदृष्ट को रहना ही चाहिए । क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि सब कारण कार्य के देश में विद्यमान रह कर ही कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हैं । हम देखते हैं कि अयस्कान्त ( चुम्बक ), मन्त्र आदि वस्तुएं लोहा आदि पदार्थों के स्थान पर उपस्थित नहीं रहते हैं, फिर भी लोहा आदि को आकर्षित करने का कार्य करते ही हैं । चुम्बक लोहा से दूर रह कर भी लोहा को खींच लेता है । मन्त्रवादी किसी स्थान विशेष में स्थित होकर मन्त्रपाठ करता है और किसी दूर प्रदेश में उस मन्त्रपाठ से विष दूर हो जाता है । अतः सभी कारण कार्य की उत्पत्ति के स्थान में उपस्थित रहकर ही कार्य करते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है ।
वैशेषिक आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं, परन्तु ऐसा मानने से संसार के अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है । यहाँ प्रश्न यह है कि संसार किसके होता है-शरीर के, मन के या आत्माके ? शरीर के तो संसार माना नहीं जा सकता है, क्योंकि शरीर तो इसी मनुष्य लोक में भस्म हो जाता है, वह दूसरे लोक में जाता नहीं है । तब शरीर के संसार कैसे माना जा सकता है । मन के भी संसार नहीं बनता है । मन अचेतन है और अचेतन होने से वह अनिष्ट नरक आदि का परिहार करके इष्ट स्वर्गादि में जाने के लिए प्राणियों को कैसे प्रेरित करेगा । यदि माना जाय कि ईश्वर की प्रेरणा से मन अनिष्ट का परिहार करके इष्ट स्वर्गादि में प्रवृत्ति कराता है तो ऐसा कथन भी गलत है । क्योंकि महाभारत में ऐसा कहा गया है ।
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ अर्थात् यह प्राणी अपने सुख और दुःख में अज्ञ और अनीश ( असमर्थ ) है । यह तो ईश्वर की प्रेरणा से ही स्वर्ग या नरक में जाता है । इस कथन से यही सिद्ध होता है कि ईश्वर आत्मा को प्रेरित करता है, मन को नहीं । अब यदि वैशेषिक आत्मा के संसार मानते हैं तो यह पक्ष हमें अभीष्ट ही है। आत्मा ही चारों गतियों और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता