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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
१९१ मैं दुःखी हूँ, मैं घट को जानता हूँ, इत्यादि प्रत्ययों द्वारा अपने शरीर में ही आत्मा के सुखादि गुणों की प्रतीति होती है, दूसरे प्राणियों के शरीर में और अन्तरांलवर्ती शरीररहित प्रदेश में सुखादि की प्रतीति कभी नहीं होती है । यदि आत्मा व्यापक है तो सर्वत्र सब को वैसी प्रतीति होनी चाहिए और ऐसी स्थिति में सबको भोजनादि का संकर ( एक के भोजन करने पर सबको भोजन की प्राप्ति ) तथा सर्वदर्शित्व का प्रसंग प्राप्त होगा । अर्थात् आत्मा को व्यापक होने से जब सभी के शरीरों में हमारी आत्मा का अस्तित्व है तो हमारे द्वारा भोजन करने पर सबकी क्षुधा की निवृत्ति हो जानी चाहिए । इसी प्रकार जब हमारी आत्मा सर्वत्र विद्यमान है तो उसे सब जगह के पदार्थों का ज्ञान भी हो जायेगा और तब हम सर्वदर्शी कहलाने लगेंगे । किन्तु ऐसा कुछ भी अनुभव में नहीं आता है । अतः आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण से व्यापक सिद्ध नहीं होता है।
अब यदि वैशेषिक अनुमान प्रमाण से आत्मा को व्यापक सिद्ध करना चाहें तो भी नहीं कर सकते हैं । क्योंकि ऐसा कोई अनुमान नहीं है . जो आत्मा को व्यापक सिद्ध कर सके । इसके विपरीत आत्मा को अव्यापक सिद्ध करने वाले कई अनुमान बतलाये जा सकते हैं । पहला अनुमान इस प्रकार है- आत्मा परममहापरिमाण का अधिकरण ( आधार ) नहीं है, क्योंकि वह सामान्यवान् होकर अनेक है, जैसे घटादि । घटादि पदार्थों में घटत्व आदि सामान्य पाया जाता है तथा घटादि अनेक होते हैं । अतः वे व्यापक नहीं है । उसी प्रकार आत्मा भी व्यापक नहीं है । दूसरा अनुमान यह है-आत्मा परममहापरिमाण का अधिकरण नहीं है, दिशा, काल और आकाश से भिन्न होकर द्रव्य होने से, घटादि की तरह । तृतीय अनुमान इस प्रकार है-आत्मा परममहापरिमाण का अधिकरण नहीं है, क्रियावान् होने से, बाणादि की तरह । आत्मा क्रियावान् है, यह बात असिद्ध नहीं है । मैं एक कोश अथवा एक योजन चल चुका हूँ, इत्यादि प्रकार की प्रतीति होने से आत्मा में क्रियावत्त्व सिद्ध होता है । एक चौथा अनुमान भी है जो आत्मा में अणुपरिमाण और परममहापरिमाण का निषेध करता है । हम कह सकते हैं कि आत्मा न तो अणुपरिमाण का अधिकरण है और न परममहापरिमाण का अधिकरण है, क्योंकि वह चेतन है । जो अणु परिमाण का अधिकरण है वह चेतन नहीं होता है, जैसे परमाणु । और जो