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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन दिग्द्रव्यविचार वैशेषिक दर्शन की एक विशेषता यह है कि उसने आकाश की तरह दिशा को भी एक स्वतन्त्र द्रव्य माना है । मूर्तिक द्रव्यों में मूर्त द्रव्य की अवधि करके यह इसके पूर्व में है, यह इससे दक्षिण में है, यह पश्चिम में, यह उत्तर में है, इत्यादि प्रकार से दस प्रकार के प्रत्यय जिसके द्वारा उत्पन्न होते हैं वह दिव्य है । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, वायव्य, नैऋत्य, ईशान, ऊर्ध्व और अधः ये दश दिशायें हैं । यह जो पूर्वादि का प्रत्यय होता है वह विशेष कारण के बिना नहीं हो सकता है, क्योंकि ये विशिष्ट प्रत्यय हैं । और जो इन प्रत्ययों का कारण है वही दिशा नामक द्रव्य है । यह दिग्द्रव्य भी आकाश के समान एक, नित्य तथा व्यापक है । एक ही दिग्द्रव्य के जो पूर्व, पश्चिम आदि भेद होते हैं वे सूर्य के द्वारा मेरु की प्रदक्षिणा करने के कारण होते हैं । ऐसी वैशेषिकों की मान्यता है । १९० 1 वैशेषिकों की उक्त मान्यता समीचीन नहीं है । क्योंकि आकाश से भिन्न दिशा नामक पृथक् द्रव्य का कोई साधक प्रमाण नहीं है । यह इसके पूर्व में है इत्यादि प्रकार से दस प्रकार का प्रत्यय तो आकाश के प्रदेशों की श्रेणियों में सूर्य के उदय आदि के निमित्त से ही हो जाता है । इन पूर्व, पश्चिम आदि प्रत्ययों का कारण आकाश के प्रदेशों की श्रेणियाँ ही 1 इसके लिए एक स्वतन्त्र दिग्द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । फिर भी यदि एक स्वतन्त्र दिग्द्रव्य की कल्पना की जाती है तो देश नामक एक स्वतन्त्र द्रव्य भी मानिए । क्योंकि यह यहाँ से पूर्व देश है, इत्यादि प्रकार का प्रत्यय देश नामक द्रव्य के बिना नहीं हो सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि वैशेषिक अभिमत दिग्द्रव्य को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण न होने से उसका पृथक् अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है । आत्मद्रव्यविचार वैशेषिकों के द्वारा अभिमत आत्मद्रव्य की कल्पना बड़ी ही विचित्र है । उनके अनुसार आत्मद्रव्य व्यापक, नित्य तथा निष्क्रिय है । विशेषता यह है कि आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक आत्मा व्यापक है । परन्तु इस प्रकार के आत्मा का अस्तित्व किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है । प्रत्यक्ष से आत्मा की जो प्रतीति होती है वह इस प्रकार से होती है । मैं सुखी हूँ,
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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