________________
१८९
चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९ है । परन्तु काल के एक होने पर चिर-क्षिप्र व्यवहार संभव नहीं है । इसी प्रकार काल के एक मानने पर कालकृत परापर प्रत्यय भी नहीं बन सकता है । अर्थात् यह पर ( ज्येष्ठ ) है और यह अपर ( कनिष्ठ ) है, यह आयु में बड़ा है और यह आयु में छोटा है, इत्यादि व्यवहार काल द्रव्य को सर्वथा एकरूप मानने पर नहीं हो सकता है । अतः काल द्रव्य को अनेक द्रव्यरूप स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है । ____ यह तो हुई काल द्रव्य के विषय में वैशेषिकों की बात । अब यह देखना है कि क्या कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कालद्रव्य के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं । हाँ, मीमांसक और सौगत काल द्रव्य को वास्तविक नहीं मानते हैं । ऐसा मानने वालों के मत में पर, अपर, यौगपद्य, अयोगपद्य, चिर और क्षिप्र प्रत्यय नहीं बन सकेंगे । ये विशिष्ट प्रत्यय किसी कारण के बिना नहीं हो सकते हैं । क्योंकि ये प्रत्यय कभी कभी होते हैं । जो पदार्थ कभी कभी होता है उसका कोई कारण अवश्य होता है । जैसे कभी कभी होने वाले घटादि पदार्थ मिट्टी, कुंभकार आदि कारणों से उत्पन्न होते हैं । परापरादि प्रत्यय विशिष्ट प्रत्यय होने के कारण किसी साधारण कारण से भी नहीं हो सकते हैं । अतः इन प्रत्ययों का असाधारण कारण काल द्रव्य 'मानना आवश्यक है। ___काल द्रव्य की सिद्धि लोक व्यवहार से भी होती है । प्रतिनियत समय में ही प्रतिनियत वनस्पतियाँ फल देती हैं । जैसे वसन्त ऋतु में ही पाटल आदि वृक्षों में कुसुम उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अन्य भी ऐसे बहुत से कार्य हैं जो अपने निश्चित काल में ही सम्पन्न होते हैं । लोग कहते हैं कि इस कार्य का अभी समय नहीं आया है, जब समय आयेगा तब यह कार्य होगा । इत्यादि उदाहरणों से काल द्रव्य की सिद्धि होती है । मीमांसक तथा सौगत पक्ष, मास, वर्ष आदि व्यवहार काल का सद्भाव तो मानते ही हैं । क्योंकि व्यवहार काल के माने बिना संसार का व्यवहार नहीं चल सकता है । अतः जब व्यवहार काल का अस्तित्व है तो वास्तविक या मख्य काल का अस्तित्व भी स्वीकार करना अनिवार्य है । क्योंकि मुख्य काल के अस्तित्व के बिना व्यवहार काल का अस्तित्व हो ही नहीं सकता