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________________ १८८ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन 1 रात्रि, पक्ष, मास, वर्ष आदि को व्यवहार काल कहते हैं । इस व्यवहार काल का सद्भाव मुख्यकाल के बिना संभव नहीं है । और जो मुख्यकाल है वह असंख्यात कालपरमाणुरूप है । यहाँ यह स्मरणीय है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक एक काला अवस्थित है । इस विषय में द्रव्यसंग्रह में बतलाया गया हैलोयायासपएसे एक्क्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासीविव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालाणु रत्नों की राशि की तरह अवस्थित है । जैसे रत्नों की राशि में प्रत्येक रत्न अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उसी प्रकार एक कालाणु का दूसरे कालाणु से पृथक् ही अस्तित्व होता है । 1 काल द्रव्य धर्म और अधर्म, द्रव्य की तरह लोकाकाशव्यापी एक द्रव्य नहीं है । क्योंकि प्रत्येक आकाश प्रदेश पर समय भेद काल को अनेक द्रव्य माने बिना नहीं बन सकता है । लंका और कुरुक्षेत्र में दिन, रात्रि आदि का पृथक् पृथक् व्यवहार उन स्थानों के कालभेद के कारण ही होता है । काल को एक अखण्ड द्रव्य मानने पर भिन्न भिन्न स्थानों में कालभेद नहीं हो सकता है । इससे यही सिद्ध होता है कि व्यवहार काल का कारण मुख्यकाल है और वह अनेक है । मुख्य काल के अभाव में व्यवहारकाल बन भी नहीं सकता है ।. I वैशेषिक काल द्रव्य को निरवयव एक द्रव्यरूप मानते हैं । ऐसा मानने पर उनके यहाँ अतीत आदि काल का व्यवहार कैसे होगा ? क्योंकि निरंश काल में अतीत, अनागत और वर्तमान आदि धर्मों का सद्भाव नहीं बन सकता है । काल को सर्वथा एक मानने पर यौगपद्य आदि प्रत्ययों का अभाव भी मानना पड़ेगा । क्योंकि जो कार्यसमुदाय एक काल में युगपत् किया जाता है उसमें यौगपद्य का व्यवहार होता है । यदि काल एक है तो सकल कार्यों की युगपत् उत्पत्ति का प्रसंग आने से अयौगपद्य प्रत्यय कैसे होगा ? इसी प्रकार चिर और क्षिप्र प्रत्यय के व्यवहार का भी अभाव हो जायेगा । जो कार्य बहुत काल में किया जाता है उसमें चिर व्यवहार होता है और जो कार्य अल्प काल में किया जाता है उसमें क्षिप्रं व्यवहार होता 1
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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