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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
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का साधारण कारण है वही आकाश है । जैनों के द्वारा माना गया आकाश द्रव्य एक और व्यापक होने पर भी निरंश नहीं है । उसके अंश या प्रदेश अनन्त है । आकाश के दो भेद हैं । लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छहों द्रव्य रहते हैं, परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश की ही सत्ता है, अन्य और कोई द्रव्य वहाँ नहीं रहता है । आकाश द्रव्य के प्रदेश अनन्त हैं, किन्तु लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं ।
कालद्रव्यविचार
पूर्वपक्ष
वैशेषिक कालद्रव्य को एक पृथक् द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं और उसकी सिद्धि पर, अपर, यौगपद्य, अयौगपद्य, चिर और क्षिप्र प्रत्ययों
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द्वारा करते हैं । वे कहते हैं कि परापरादि प्रत्ययों का कोई विशेष कारण होना चाहिए, क्योंकि ये विशिष्ट कार्य हैं । और विशिष्ट कार्य होने के कारण ये प्रत्यय काल द्रव्य से सम्बद्ध हैं । अर्थात् ये प्रत्यय काल द्रव्य से उत्पन्न होते हैं । जो विशिष्ट कार्य होता है वह विशिष्ट कारण से उत्पन्न होता है । जैसे घटपटादि विशिष्ट कार्य अपने अपने विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होते हैं । परापर प्रत्यय को देशकृत नहीं माना जा सकता है । क्योंकि देशकृत परापर प्रत्यय से कालकृत परापर प्रत्यय भिन्न होता है । एक ही देश में स्थित पिता में परत्व ( बड़ा होना ) और पुत्र में अपरत्व ( छोटा होना ) पाया जाता है । यह कालकृत परापर प्रत्यय है जो काल द्रव्य के बिना संभव नहीं है । देशकृत परापर प्रत्यय में तो दूर और पास का ज्ञान होता हैं । जैसे इस भवन से वह पर्वत दूर है । यह देशकृत परापर प्रत्यय है । कालकृत परापर प्रत्यय में बड़े और छोटे का ज्ञान होता है । अत: परापर आदि प्रत्ययों के द्वारा काल द्रव्य की सिद्धि होती है । यह काल द्रव्य आकाश के समान एक, नित्य और विभु द्रव्य है ।
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उत्तरपक्ष- -
वैशेषिकों ने पर, अपर, आदि प्रत्ययों के द्वारा जिस काल द्रव्य की सिद्धि की है वह एक नहीं है । वह मुख्य और व्यवहार काल के भेद से दो प्रकार का है । समय, आवलिका, लव, निमेष, घटिका, मुहूर्त, प्रहर, दिन,