________________
१८६
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . ___ अब हम शब्दों में स्पर्श गुण की सिद्धि करते हैं । शब्द स्पर्शवान् है, क्योंकि वह अपने से सम्बद्ध अन्य अर्थ के अभिघात का कारण होता है । जैसे कि मुद्गर आदि पदार्थ अपने से सम्बद्ध घट आदि का अभिघात करने के कारण स्पर्शवान् सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार कांसे के पात्र से उत्पन्न ध्वनि का कान के साथ सम्बन्ध होने पर कान का अभिघात देखा जाता है
और इससे कान में बहिरापन भी आ जाता है । यदि शब्द स्पर्शवान् न होता तो उससे कर्ण का अभिघात होना संभव नहीं है । जिस प्रकार शब्द 'स्पर्श गुण का आश्रय है उसी प्रकार अल्पत्व-महत्त्व परिमाण, संख्या और संयोग गुणों का भी आश्रय है । इससे यही सिद्ध होता है कि शब्द गुण न होकर द्रव्य है।
क्रियावान् होने के कारण भी बाणादि की तरह शब्द द्रव्य सिद्ध होता है । यदि शब्द क्रियावान् नहीं होता तो कर्ण के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकने के कारण कर्ण के द्वारा शब्द का ग्रहण नहीं होता । शब्द के निष्क्रिय होने पर भी श्रोत्र के द्वारा उसका ग्रहण मानने पर शब्द में अप्राप्यकारित्व का प्रसंग प्राप्त होगा, जो वैशेषिकों को अनिष्ट है । यदि शब्द आकाश का गुण है तो आकाश के अत्यन्त परोक्ष होने से हम लोगों के द्वारा शब्द का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । क्योंकि जो अत्यन्त परोक्ष गुणी के गुण होते हैं वे हमारे द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होते हैं, जैसे परमाणु के रूपादि गुण । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर शब्द आकाश का गुण सिद्ध नहीं होता है । यथार्थ में शब्द आकाश का गुण नहीं है किन्तु वह तो पौगलिक है । अतः हम कह सकते हैं कि शब्द पौद्गलिक है, क्रियावान् होने से बाणादि की तरह । निष्कर्ष यह है कि शब्द न तो आकाश का गुण है और न शब्दगुण से आकाश द्रव्य की सिद्धि होती है ।।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि शब्द गुण के द्वारा आकाश की सिद्धि नहीं होती है तो फिर आकाश द्रव्य की सिद्धि कैसे होती है ? इसका उत्तर यह है कि आकाश सम्पूर्ण द्रव्यों को एक साथ अवगाह ( रहने का स्थान ) देता है और इस अवगाहरूप कार्य या धर्म के कारण आकाश की सिद्धि होती है । एक साथ जीवादि सब द्रव्यों को अवगाह देना रूप कार्य किसी साधारण कारण की अपेक्षा रखता है और जो सब द्रव्यों के अवगाह