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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
मैं उसी का स्पर्श कर रहा हूँ' इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान द्वारा रूपादिमान् द्रव्य का ग्रहण होता ही है ।
यहाँ यह द्रष्टव्य है कि जिस प्रकार रूपादिरहित द्रव्य प्रत्यक्ष में प्रतिभासित नहीं होता है, उसी प्रकार द्रव्यरहित रूपादि भी प्रतिभासित नहीं होते हैं । यदि मातुलिंग द्रव्य की सत्ता न हो तो उसके रूपादि स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं हो सकते हैं । एक बात यह भी विचारणीय है कि प्रत्यक्षत्व का मतलब क्या है ? प्रत्यक्षत्व का मतलब है - अनात्मस्वरूप का परिहार करके बुद्धि में अपने स्वरूप का समर्पण करना । बौद्धमत के अनुसार ये द्रव्यरहित रूपादि प्रत्यक्ष में अपने स्वरूप का समर्पण तो करते नहीं है, फिर भी प्रत्यक्षता को स्वीकार करना चाहते हैं । इस कारण ये रूपादि अमूल्यदानक्रयी कहलायेंगे । यदि कोई पुरुष मूल्य दिये बिना कोई वस्तु खरीदना चाहता है तो वह अमूल्यदानक्रयी कहलाता है । इसी प्रकार रूपरसादि द्रव्यरहित होकर बुद्धि में अपना स्वरूप समर्पण नहीं कर सकते हैं, फिर भी प्रत्यक्ष कहलाना चाहते हैं । यही इनका अमूल्यदानक्रयित्व है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि अवयवी का अर्थात् रूपादिमान् वस्तु का अभाव मानना सर्वथा असंगत है । अतः अवयवों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न घट-पटादि अवयवी द्रव्य को स्वीकार करना चाहिए । वैशेषिकाभिमत षट्पदार्थवाद
पूर्वपक्ष
वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, . विशेष और समवाय ये ६ पदार्थ हैं । ये छहों पदार्थ परस्पर में अत्यन्त भिन्न हैं । इनमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये ९ द्रव्य हैं । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार द्रव्य नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार के हैं । इनमें परमाणुरूप द्रव्य नित्य है और परमाणुओं से उत्पन्न होने वाले द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि कार्य द्रव्य अनित्य हैं । इनके अतिरिक्त आकाश आदि ५ द्रव्य नित्य हैं । इनकी उत्पत्ति कभी नहीं होती है । ये सब द्रव्य द्रव्यत्व सामान्य के सम्बन्ध से द्रव्य कहलाते हैं । आत्मा, आकाश, काल और दिशा ये चार द्रव्य व्यापक हैं । और शेष द्रव्य अव्यापक I हैं । गन्ध पृथिवी का विशेष गुण है, रस जल का विशेष गुण है, रूप अग्नि का विशेष गुण है, स्पर्श वायु का विशेष गुण है और शब्द आकाश का