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चतुर्थ परिच्छेद: सूत्र ९
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विशेष गुण है । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रत्यत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ये ९ आत्मा के विशेष गुण हैं । मन अणुरूप तथा अनेक है । उत्तरपक्ष
वैशेषिकों के द्वारा अभिमत द्रव्यादि छह पदार्थों का निरूपण प्रमाण संगत नहीं है । उन्होंने द्रव्यादि पदार्थों का जो स्वरूप बतलाया है अब उसी पर यहाँ विचार किया जा रहा है ।
परमाणुरूप नित्यद्रव्यविचार
पृथिवी, जल, अग्नि, और वायु इन चार द्रव्यों को नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का बतलाया गया है । इनमें से परमाणुरूप द्रव्य को सर्वथा नित्य मानना ठीक नहीं है । क्योंकि सर्वथा नित्य द्रव्य में न तो क्रम
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से अर्थक्रिया बनती है और न युगपत् । और अर्थक्रिया के अभाव में उसमें सत्त्व की निवृत्ति हो जाने पर असत्त्व का प्रसंग प्राप्त होगा । यह भी विचारणीय है कि यदि सर्वथा नित्य परमाणुओं का स्वभाव द्व्यणुक आदि कार्यों को उत्पन्न करने का है तो उनसे उत्पन्न होने वाले सब कार्य एक साथ ही उत्पन्न हो जाना चाहिए । फिर भी यदि सब कार्य एक साथ उत्पन्न नहीं होते हैं तो आगामी काल में भी उनकी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए । क्योंकि उनके उत्पादक कारण तो जैसे पहले थे वैसे अब भी हैं । उनमें कोई विशेषता तो उत्पन्न हुई नहीं । अब यदि ऐसा माना जाय कि जब परमाणुओं में परस्पर में संयोग होता है तब वे कार्य को उत्पन्न करते हैं, अन्यथा नहीं । तब यहाँ प्रश्न यह होगा कि परस्पर के संयोग से परमाणुओं में कोई अतिशय उत्पन्न होता है या नहीं । यदि उनमें अतिशय उत्पन्न नहीं होता है तब तो वे पूर्ववत् अकारक ही रहेंगे । और यदि संयोग के होने से उनमें कोई अतिशय उत्पन्न हो जाता है तब तो यह मानना पड़ेगा कि परमाणुओं ने पहले की असंयोगरूप अवस्था का त्यागकर संयोगरूप नूतन अवस्था को धारण कर लिया है । और ऐसा मानने पर परमाणुओं में कथंचित् अनित्यत्व स्वीकार करना अनिवार्य है ।
यहाँ यह प्रष्टव्य है कि परमाणुओं में संयोग सर्वदेश से होता है या एक देश से । प्रथमपक्ष स्वीकार करने पर अनेक परमाणुओं का पिण्ड अणुमात्र हो जायेगा । और एक देश से संयोग मानने पर परमाणुओं को