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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
१८१ अवयवों से कथंचित् अभिन्न पटरूप अवयवी प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है और इसे ऐसा ही स्वीकार करना चाहिए ।
बौद्धाभिमत अवयवी का निरास बौद्धों द्वारा अवयवी की जो कल्पना की गई है वह अत्यन्त विलक्षण है । उनका कहना है कि अवयवों के समूह का नाम ही अवयवी है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई अवयवी नहीं है । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि प्रत्येक परमाणु की सत्ता पृथक् एवं स्वतन्त्र है । एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । किन्तु सब परमाणु सन्निकट हैं, उनमें कोई अन्तराल नहीं है । इस कारण परस्पर में सम्बन्ध रहित परमाणुओं में भी भ्रान्ति से समुदाय ( अवयवी ) की प्रतीति होने लगती है । इसी प्रकरण में बौद्ध कहते हैं कि रूप, रस, गन्ध और वर्ण के समूह का नाम ही पट है । रूपादि को छोड़कर अन्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे पट कहा जाय और जो शीतादि के निवारण में समर्थ हो । चाक्षुष ज्ञान में रूप ही प्रतिभासित होता है, अन्य कोई रूपवान् पटादि अर्थ नहीं । रस आदि के प्रतिभास में भी यही बात समझ लेना चाहिए कि केवल रस आदि का ही प्रतिभास होता है, रसवान् आदि किसी पदार्थ का नहीं । अवयवी के विषय में बौद्धों की ऐसी मान्यता है । . बौद्धों की उक्त मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । बौद्धों ने रूपादि धर्मों
का सद्भाव मानकर के भी रूपादिमान् द्रव्य का अभाव बतलाया है । हम यहाँ यह पूछना चाहते हैं कि रूपादिमान् द्रव्य का अभाव क्यों है ? क्या एकत्वरूप अवयवी और अनेकत्वरूप रूपरसादि अवयवों में विरुद्धधर्माध्यास होने के कारण तादात्म्य न होने से रूपादिमान् द्रव्य का अभाव है । अथवा रूपादिमान् द्रव्य के ग्रहण करने का कोई उपाय न होने से उसका अभाव है । इनमें से प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है । चित्रज्ञान की तरह हम ( जैन ) अवयव और अवयवी में कथंचित् तादात्म्य मानते ही हैं । जिस प्रकार एक चित्रज्ञान का अपने नीलपीतादि आकारों के साथ तादात्म्य है, उसी प्रकार अवयवी द्रव्य का रूपादि के साथ कथंचित् तादात्म्य मानने में कोई विरोध नहीं है । यह कहना भी सही नहीं है कि रूपादिमान् द्रव्य का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है । क्योंकि जिसको मैंने पहले देखा था अब