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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
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क्योंकि मध्यभाग और परभागवर्ती अवयवों का प्रतिभास संभव न होने के . कारण अवयवी का प्रतिभास भी संभव नहीं होगा । यौगों ने अवयवी को एक और निरंश माना है । किन्तु एक और निरंश अवयवी का एक साथ अनेक अवयवों में रहना भी संभव नहीं है । हम कह सकते हैं कि जो द्रव्य निरंश और एक है वह एक साथ अनेक द्रव्य के आश्रित नहीं रहता है, जैसे परमाणु । यदि एक अवयवी अनेक अवयवों में रहता है तो प्रश्न यह है कि अवयवी अपने अवयवों में पूर्णरूप से रहता है या एक देश से रहता हैं । यदि अवयवी प्रत्येक अवयव में पूर्णरूप से रहता है तो जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी मानना पड़ेंगे । इसके विपरीत अवयवी की एक देश से अवयवों में वृत्ति मानने पर अवयवी में निरंशता का व्याघात आता है । अवयवी की अवयवों में एक देश से वृत्ति मानने पर अवयवी निरंश न होकर सांश ( अंश सहित ) सिद्ध होता है ।
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यहाँ यह भी विचारणीय है कि यदि अवयवी एक और अविभागी है तो अवयवी के किसी एक देश में आवरण होने पर पूरे अवयवी में आवरण हो जाना चाहिए । इसी प्रकार एक देश में रंग होने पर पूरे अवयवी में रंग हो जाना चाहिए । क्योंकि आवृत और अनावृत तथा रक्त और अरक्त अवयवी को यौगों ने एक रूप ही माना है । किन्तु ऐसा मानने में प्रत्यक्ष से विरोध आता है । अतः अवयवी न तो निरंश है और न अवयवों से सर्वथा भिन्न है । यथार्थ में तन्तुओं का आतानवितानभूत अवस्थाविशेषरूप से परिणत होना ही पटरूप अवयवी द्रव्य है । इसलिए पट तन्तुओं से सर्वथा भिन्न नहीं है, किन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है । जो बात पट और तन्तुओं के विषय में बतलाई गई है वही बात अन्य समस्त अवयवी और अवयवों के विषय में भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिए ।
उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि प्रमाण के द्वारा वस्तु का स्वरूप जैसा गृहीत होता है उसे वैसा ही मानना चाहिए । जहाँ प्रमाण पदार्थों में अत्यन्त भेद का ग्राहक है वहाँ उन पदार्थों में अत्यन्त भेद सिद्ध होता है, जैसे घट और पट में । और जहाँ प्रमाण कथंचित् भेद का ग्राहक है वहाँ कथंचित् भेद सिद्ध होता है, जैसे तन्तु और पट में । अतः तन्तुओं की अवस्थाविशेषरूप, शीतनिवारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ और अपने