________________
चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९ यौगाभिमत अवयवी का निरास
नैयायिक-वैशेषिक अवयव और अवयवी में सर्वथा भेद मानते हैं । तथा अवयवी को एक और निरंश मानते हैं । पट अवयवी है और तन्तु उसके अवयव हैं । पट समवाय सम्बन्ध से तन्तुओं में रहता है । ऐसी उनकी परिकल्पना है जो सर्वथा असंगत है । क्योंकि तन्तुओं से भिन्न पटरूप अवयवी की उपलब्धि न होने के कारण योगों के द्वारा परिकल्पित अवयवी का सत्त्व सिद्ध नहीं होता है । यदि अवयवों से भिन्न अवयवी होता तो घट की तरह उपलब्धिलक्षणप्राप्त होने से उसकी उपलब्धि अवश्य होनी चाहिए । किन्तु अवयवों से पृथक् उसकी उपलब्धि कभी नहीं होती है । अत: वह असत् ही कहलायेगा । यह कहना भी ठीक नहीं है कि दोनों का समानदेश होने के कारण अवयवी की अवयवों से पृथक् उपलब्धि नहीं होती है । हम देखते हैं कि वात और आतप में तथा रूप और रस में समान देश होने पर भी उनकी पृथक् पृथक् उपलब्धि होती है ।
१७९
यहाँ यह भी विचारणीय है कि अवयव और अवयवी में शास्त्रीय देश अपेक्षा से समानदेशता है अथवा लौकिक देश की अपेक्षा से समानदेशता है । प्रथम पक्ष तो असंगत है। क्योंकि शास्त्रीय दृष्टि से दोनों का देश समान न होकर भिन्न भिन्न है । पट अवयवी के आरंभिक तन्तुओं का देश अन्य है तथा पट का देश अन्य है । तन्तु अपने अवयवों ( रुई के रेशों में ) में रहते हैं और पट अपने अवयव तन्तुओं में रहता है । इसलिए उनका देश समान नहीं है । द्वितीय पक्ष भी संगत नहीं है । लोक में समानदेशता का मतलब होता है - एक भाजन में रहना । जैसे कुण्ड में बेरों का रहना । . ऐसी समानदेशता तो अर्थों में भेद को ही सिद्ध करती है, अभेद को नहीं । लौकिक दृष्टि से कुण्ड और बेरों में समानदेशता होने पर भी अभिन्नता नहीं है । उसी प्रकार अवयव और अवयवी में भी अभेद नहीं है ।
1
अब यह बतलाइये कि कुछ अवयवों का प्रतिभास होने पर अवयवी का प्रतिभास होता है या सम्पूर्ण अवयवों का प्रतिभास होने पर । प्रथम विकल्प ठीक नहीं है । क्योंकि जल में निमग्न महाकाय गज के ऊपर के कुछ अवयवों का प्रतिभास होने पर भी सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त गंज अवयवी का प्रतिभास नहीं होता है । द्वितीय विकल्प भी ठीक नहीं है ।