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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . अथवा सत्त्वासत्त्व को अन्योन्यनिरपेक्ष होने पर हमने उनमें एकत्व नहीं माना है । परन्तु परस्पर सापेक्ष भेदाभेद तथा सत्त्वासत्त्व में ही एकत्व माना गया है । इसलिए उसमें उभयदोष संभव नहीं है । एक ही वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने में संकरदोष का परिहार मेचकज्ञान के दृष्टान्त से हो जाता है । वस्तु में अनेक धर्मों की युगपत् प्राप्ति को संकर कहते हैं । जैसे मेचक रत्न में नील, पीत आदि अनेक वर्गों का प्रतिभास होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि जिस रूप से नील वर्ण का प्रतिभास होता है • उसी रूप से पीत वर्ण का भी प्रतिभास होता है । परन्तु भिन्न भिन्न रूप से सभी का प्रतिभास होता है । इसी प्रकार एक ही वस्तु में भिन्न भिन्न दृष्टियों से भेद और अभेद की व्यवस्था बन जाती है । अतः हमारे मत में संकरदोष संभव नहीं है । इसी प्रकार जैनदर्शन की दृष्टि से व्यतिकर दोष की भी कोई संभावना नहीं है । परस्पर में एक दूसरे के विषय में जाने को व्यतिकर कहते हैं । इस दोष के परिहार के लिए सामान्य-विशेष का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे गोत्व खण्डी, मुण्डी आदि गायों की अपेक्षा से सामान्यरूप है और महिष, अश्व आदि की अपेक्षा से विशेषरूप है । उसी प्रकार पर्याय की दृष्टि से वस्तु में भेद की प्रतीति और द्रव्य की दृष्टि से अभेद की प्रतीति होती है । अत: स्याद्वादियों के मत में व्यतिकर दोष संभव नहीं है। ___ इसी प्रकार स्याद्वादसिद्धान्त में अनवस्थादोष की कल्पना करना सर्वथा असंगत है । क्योंकि धर्मी में ही अनेकरूपता होती है, धर्मों में नहीं । एक धर्म में दूसरा धर्म संभव नहीं है । वस्तु में जो अभेद है वही धर्मी है और अनेक धर्म ही भेद कहलाते हैं । द्रव्य दृष्टि से वस्तु अभेद या एकरूप है और पर्याय दृष्टि से वह भेद या अनेकरूप है । अभेद को सामान्य और भेद को विशेष कहते हैं । भेद की प्रधानता से वस्तु के धर्म अनन्त हैं । इस प्रकार वस्तु में अनन्त धर्मों के स्वीकार करने से यहाँ अनवस्था दोष नहीं आ सकता है । अनवस्था दोष वही व्यक्ति बतला सकता है जो अनेकान्तवाद से सर्वथा अनभिज्ञ है । जब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सब प्राणियों को सदा ही अनेकान्तात्मक वस्तु का अनुभव हो रहा है तब अभावदोष तो स्पष्टरूप से निराकृत हो जाता है । क्योंकि अनुभव सिद्ध वस्तु का अभाव कैसे किया जा सकता है । इस प्रकार अनेकान्तरूप जैनशासन संशयादि दोषों से रहित सिद्ध होता है ।