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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
१७७ (७) अनवस्था - वस्तु में जिस रूप से भेद है उससे कथंचित् भेद होगा
और जिस रूप से अभेद है उससे भी कथंचित् अभेद होगा । पुनः उनमें भी भेद और अभेद की कल्पना से अनवस्थादोष आता है । (८) अभाव दोष-वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने में संशयादि दोषों के आने के कारण उसके स्वरूप की यथार्थ प्रतिपत्ति संभव न होने से उसके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । यही अभाव दोष है । उक्त दोषों का परिहार.. वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने में संशयादि दोषों की जो कल्पना की जाती है वह वस्तु के स्वरूप को ठीक तरह से न समझने के कारण ही की जाती है । वस्तु में भेद और अभेद दोनों की प्रतीति न होने पर ही संशय माना जा सकता है । जैसे स्थाणु और पुरुष की ठीक से प्रतीति न होने से संशय होता है । किन्तु जब वस्तु में भेद और अभेद की स्पष्ट प्रतीति हो रही है तब संशय की संभावना कैसे हो सकती है । चलित प्रतीति का नाम संशय है । किन्तु वस्तु में जो भेद और अभेद की प्रतीति होती है वह चलित नहीं है, वह तो निश्चित प्रतीति है । अत: वह संशय नहीं है । .. एक वस्तु में भेद और अभेद के रहने में कोई विरोध नहीं है । वस्तु में विवक्षित धर्मों की अपेक्षा से भेद और अभेद माना गया है । पर्याय की अपेक्षा से भेद है और द्रव्य की अपेक्षा से अभेद है । वस्तु न तो द्रव्यरूप है और न पर्यायरूप है, किन्तु उभयरूप है । विरोध तो वहाँ होता है जहाँ विद्यमान एक वस्तु का दूसरी वस्तु के आ जाने से अभाव हो जाता है । जैसे अग्नि के आ जाने से शीत का अभाव हो जाता है । परन्तु भेद के सद्भाव में अभेद का अथवा अभेद के सद्भाव में भेद का अभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है । क्योंकि वहाँ अपेक्षा भेद से भेद और अभेद एक साथ रह सकते हैं । ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है । - एक वस्तु में भेद और अभेद मानने में वैयधिकरण्य दोष की कोई संभावना नहीं है । क्योंकि निर्बाध ज्ञान के द्वारा भेदाभेद की अथवा सत्त्वासत्त्व की एक ही आधार में प्रतीति होती है । इसी प्रकार वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने में उभयदोष की कल्पना करना ठीक नहीं है । क्योंकि स्याद्वादियों के द्वारा अभ्युपगत वस्तु जात्यन्तर ( विलक्षणरूप ) मानी गई है । भेदाभेद .