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________________ १७६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन प्रतीत होने वाले धर्मों को धारण करने के कारण अनेकान्तात्मक सिद्ध होते हैं। प्रत्येक पदार्थ सामान्य- विशेषरूप अथवा भेदाभेदरूप है । इस प्रकार प्रत्येक अर्थ में सामान्यविशेषात्मकत्व की सिद्धि होती है । · अनेकान्तवाद में संशयादि आठ दोषों का निराकरण : एकान्तवादियों ने वहुत को सामान्यविशेषात्मक अथवा भेदाभेदात्मक मानने में संशयादि आठ दोष बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं ( १ ) संशय - वस्तु को भेदाभेदात्मक अथवा सामान्य- विशेषात्मक मानने पर उसके असाधारण स्वरूप का निश्चय नहीं हो पाता है । और यह संशय बना रहता है कि वस्तु में किस स्वरूप की अपेक्षा से भेद है और किस स्वरूप की अपेक्षा से अभेद है । यही संशय दोष है । (२) विरोध - जहाँ अभेद है वहाँ भेद का विरोध है और जहाँ भेद है वहाँ अभेद का विरोध है । जैसे शीत और उष्ण स्पर्श में विरोध है । यह विरोध दोष है । ( ३ ) वैयधिकरण्य - एक स्वभावरूप अभेद का अधिकरण अन्य है और अनेक स्वभावरूप भेद का अधिकरण दूसरा है । यह वैयधिकरण्य दोष है । (४) उभयदोष - वस्तु को एकान्तरूप से एकात्मक ( एकस्वभावरूप ) मानने में अनेक स्वभाव के अभावरूप जो दोष है और अनेकात्मक ( अनेकस्वभावरूप ) मानने में एक स्वभाव के अभावरूप जो दोष है, वह वस्तु को भेदाभेदात्मक मानने में भी आता है । यही उभय दोष है । (५) संकर - वस्तु में जिस स्वभाव से एक स्वभावता है उससे अनेक स्वभावता का प्रसंग और जिस स्वभाव से अनेक स्वभावता है उससे एक स्वभावता का प्रसंग प्राप्त होगा । यही संकर दोष है । सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः । सब धर्मों की युगपत् प्राप्ति का नाम संकर है । (६) व्यतिकर - वस्तु में जिस स्वभाव से अनेकत्व है उससे एकत्व की प्राप्ति होगी । और जिस स्वभाव से एकत्व है उससे अनेकत्व की प्राप्ति होगी । यही व्यतिकर दोष है । परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । परस्पर में एक दूसरे के विषय में जाना व्यतिकर कहलाता है ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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