________________
चतुर्थ परिच्छेद: सूत्र ९
१७५
गुणत्व सामान्य गुणों में और कर्मत्व सामान्य कर्मों में समवाय सम्बन्ध के कारण ही रहता है । ऐसी वैशेषिकों की मान्यता है ।
I
उत्तरपक्ष
वैशेषिकों की उक्त मान्यता तर्कसंगत नहीं है । सामान्य और विशेष न तो परस्पर में पृथक् हैं और न अर्थ से पृथक् हैं । वास्तव में सामान्य और विशेष अर्थ की आत्मा हैं । सामान्य और विशेष को छोड़कर अर्थ का अन्य कोई स्वरूप नहीं है । इसीलिए अर्थ के साथ सामान्य और विशेष का तादात्म्य माना गया है । तादात्म्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है - तौ आत्मानौ यस्य तस्य भावः तादात्म्यम् । सामान्य और विशेष को अर्थ की आत्मा ( स्वरूप ) होने का नाम ही तादात्म्य है ।
1
सामान्य- विशेष आदि अनेक धर्मात्मक पदार्थ ही वास्तविक है, क्योंकि वह परस्पर में विलक्षण अनेक अर्थक्रियाओं को करता है । जैसे एक ही देवदत्त परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाली पिता, पुत्र, पौत्र, भ्रातृ, मातुल, भागिनेय इत्यादि अनेक प्रकार की अर्थक्रियाओं को करता है । घटादि पदार्थों में भी संत्-असत् प्रत्यय, अनुवृत्त - व्यावृत्त प्रत्यय, जलधारण, आहरण आदि अनेक प्रकार की अर्थक्रियाओं का ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है । यह कहना भी सर्वथा गलत है कि अवयव अवयवी, गुण-गुणी आदि सर्वथा भिन्न हैं । गुण- गुणी आदि सर्वथा भिन्न नहीं है । प्रमाण के द्वारा जहाँ जैसा प्रतिभास होता है उसी के अनुसार पदार्थ का स्वरूप मानना चाहिए । जहाँ पर पदार्थों में अत्यन्त भेद की प्रतीति होती है वहाँ पर घट और पट की तरह अत्यन्त भेद मानना चाहिए । और जहाँ पर कथंचित् भेद की प्रतीति होती है वहाँ पर कथंचित् भेद मानना चाहिए | अवयव - अवयवी में और गुण-गुणी में कथंचित् भेद है, सर्वथा नहीं ।
यदि आत्मा आदि द्रव्य को सर्वथा नित्य माना जाय तो उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, जन्म, मरण आदि कैसे बनेंगे । यदि आत्मा अपनी पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय को धारण करता है तो वह अनेकान्तात्मक सिद्ध होता
। सुख-दुःखादि पर्यायें भी आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं हैं, किन्तु कंथचित् • भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं । जीव, पुद्गल, आकाश, काल, घट, पट आदि समस्त पदार्थ अस्तित्व - नास्तित्व, नित्यत्व - अनित्यत्व आदि विरोधी