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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन विषय नहीं हो सकते हैं । दोनों का स्वतन्त्र रूप से पृथक् पृथक् प्रतिभास भी नहीं होता है । सामान्य और विशेष दोनों परस्पर में अपृथक्भूत हैं, पृथक्भूत नहीं । सामान्य और विशेष का पदार्थ के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । यही कारण है कि सामान्यविशेषात्मक अर्थ प्रमाण का विषय होता है।
अर्थ में सामान्यविशेषात्मकत्व की सिद्धि पूर्वपक्ष
वैशेषिकों की मान्यता है कि सामान्य और विशेष दोनों घट-पट की तरह अत्यन्त भिन्न हैं । घट और पट एक नहीं हैं, क्योंकि उनमें प्रतिभास भेद पाया जाता है तथा उनकी अर्थक्रिया भी भिन्न भिन्न होती है । घट का जैसा प्रतिभास होता है वैसा प्रतिभास पट का नहीं होता है । दोनों में प्रतिभास भेद स्पष्ट है । जलधारण, आहरण आदि घट की अर्थक्रिया है
और शीतनिवारण, आच्छादन आदि पट की अर्थक्रिया है । घट-पट की तरह सामान्य और विशेष में भी प्रतिभास भेद पाया जाता है । सामान्य का प्रतिभास सदृशपरिणमनरूप होता है और विशेष का प्रतभिास विसदृशपरिणमनरूप होता है । प्रतिभासभेद होने पर भी यदि सामान्य और विशेष में भेद न माना जाय तो घट, पट आदि में भी भेद सिद्ध नहीं हो सकंगा । पट और तन्तुओं में भी प्रतिभास भेद के कारण ही भेद सिद्ध होता है । प्रतिभास भेद के कारण ही अवयव और अवयवी में तथा गुण और गुणी में भेद माना गया है । पट और तन्तुओं में विरुद्धधर्माध्यास भी पाया जाता है । पट में पटत्व सामान्य रहता है और तन्तुओं में तन्तुत्व सामान्य रहता है । पट का परिमाण महान है और तन्तु का परिमाण अल्प है । यही उन दोनों में विरुद्धधर्माध्यास है ।। ____ जैनमतानुयायी सामान्य-विशेष, में अवयव-अवयवी में और गुणगुणी में तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं, किन्तु तादात्म्य का अर्थ तो एकत्व है
और यदि यह एकत्व तन्तु और पटादि पदार्थों में होता तो उनका भिन्न भिन्न प्रतिभास तथा उनमें विरुद्धधर्माध्यास नहीं होता । अतः सामान्य और विशेष में तादात्म्य न होकर उनमें पृथक्त्व है । द्रव्यत्व सामान्य द्रव्य से पृथक है और समवाय सम्बन्ध से वह द्रव्यों में रहता है । इसी प्रकार