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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ९
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नहीं है । अतः आत्मा ही प्रमाता सिद्ध होता है । जिस प्रकार चित्रज्ञान नीलादि आकाररूप से परिणत होता है, उसी प्रकार आत्मा सुखादि पर्यायरूप से परिणत होता है । तथा सुखादि अनेक आकाररूप से परिणत होने पर भी आत्मा में एकत्व का व्याघात नहीं होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि एक ऐसी आत्मा है जिसका सुखादि विभिन्न पर्यायों में सदा अन्वय बना रहता है । इसी का नाम अन्वयी आत्मा है । इस प्रकार यहाँ युक्तिपूर्वक अन्वयी आत्मा की सिद्धि की गई है ।
व्यतिरेक विशेष का स्वरूप
अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥ ९ ॥ एक अर्थ से दूसरे अर्थ में पाये जाने वाले विसदृश परिणमन को व्यतिरके कहते हैं । जैसे गाय, भैंस आदि में जो विसदृश परिणमन पाया जाता है वह व्यतिरेक नामक विशेष है ।
एक अर्थ से सजातीय तथा विजातीय अर्थ अर्थान्तर कहलाता है । एक गाय से दूसरी गाय अर्थान्तर है और एक भैंस से दूसरी भैंस अर्थान्तर है । यह हुई सजातीयों में अर्थान्तर की बात । इसी प्रकार गाय से भैंस, अश्व आदि अर्थान्तर हैं। यह विजातीयों में अर्थान्तर का उदाहरण है । एक गाय से दूसरी गाय में तथा एक भैंस से दूसरी भैंस में जो विसदृश परिणमन है वह व्यतिरेक है । इसी प्रकार गाय, भैंस, अश्व आदि में परस्पर में जो विसदृश परिणमन है वह भी व्यतिरेक है । कहने का तात्पर्य यह है कि विसदृश परिणमन विजातीयों में तो होता ही है, सजातीयों में भी होता है। गायों में खण्ड मुण्ड आदि रूप विसदृश पणिमन होता है । जिस गाय का पैर टूटा हो उसे खण्डी गाय कहते हैं और जिसका सींग टूटा हो उसे मुडी गाय कहते हैं । इसी प्रकार भैंसों में यह भैंस विशाल है, यह बड़े सींगवाली है, इत्यादि रूप से विसदृश परिणमन पाया जाता है । इसी तरह गाय और भैंसों में पारस्परिक असाधारणलक्षणरूप विसदृश परिणमन विद्यमान रहता है ।
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इस प्रकार यह बतलाया गया है कि सामान्य - विशेषरूप जो अर्थ है वही प्रमाण का विषय है, प्रमाण का विषय न केवल सामान्य है और न केवल विशेष है । समान्य और विशेष पृथक् पृथक् रह कर भी प्रमाण के