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________________ १७२ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन है । विभिन्न पर्यायें आत्मा में ही नहीं होती हैं, किन्तु पुद्गल आदि सब द्रव्यों में भी होती हैं । अतः सब द्रव्यों में पर्यायरूप विशेष पाया जाता है। अन्वयी आत्मा की सिद्धि यहाँ बौद्ध कहते हैं कि हर्ष, विषाद आदि चैतसिक पर्यायों को छोड़कर अन्य कोई पृथक् आत्मा नहीं है । अतः आत्मा में हर्ष, विषाद आदि का उदाहरण देना ठीक नहीं है । बौद्धों का यह कथन समीचीन नहीं है । चित्राकार ज्ञान की तरह आत्मा भी अनेक आकारों ( पर्यायों ) में व्याप्त रहता है और इसकी प्रतीति स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से होती है । बौद्ध अनात्मवादी हैं । इसलिए वे आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं । किन्तु अनात्मवाद का सिद्धान्त कल्याणकारी नहीं है । जिस प्रकार बौद्धदर्शन में नीलपीतादि अनेक आकारवाला एक चित्रज्ञान माना गया है, उसी प्रकार जैनदर्शन में हर्ष, विषाद आदि अनेक आकारों में व्याप्त रहने वाला एक आत्मतत्त्व माना गया है । सुख-दुःखादि पर्यायों का परस्पर में तथा आत्मा से सर्वथा भेद नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर मैं पहले सुखी था, अब दुःखी हूँ' ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करने पर बौद्ध मत में कृतनाश और अकृताभ्यागम दोषों का निराकरण नहीं हो सकता है । बौद्ध आत्मा को न मानकर दीपक की लौ की तरह केवल ज्ञान की सन्तान मानते हैं और यह सन्तान प्रतिक्षण बदलती रहती है । सन्तान के एक क्षण का दूसरे क्षण से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । बौद्धदर्शन में निरन्वय विनाश और उत्पाद होते रहते हैं । अत: जिस सन्तान ने जो कर्म किया है उसका फल उसे नहीं मिलेगा । यह कृतनाश है । और जिस सन्तान ने कोई कर्म किया ही नहीं है उसको पूर्व की सन्तान के कर्म का फल मिल जायेगा । यही अकृताभ्यागम है । अन्वयी आत्मा के अभाव में इन दोषों का निराकरण संभव नहीं है ।अन्वयी आत्मा की सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से तो होती ही है । इसके अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञान से भी उसकी सिद्धि होती है । मैंने ही पहले जाना था और मैं ही इस समय जान रहा हूँ, इत्यादि रूप से एक प्रमाता को विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान से अन्वयी आत्मा की सिद्धि होती है । आत्मा को छोड़कर अन्य किसी सन्तान में प्रमातृत्व संभव
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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