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चतुर्थ परिच्छेद: सूत्र ६-८
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का निराकरण भी समीचीन नहीं है । क्योंकि हम लोग सहभावित्व अथवा क्रमभावित्व को कार्यकारणभाव का कारण नहीं मानते हैं । किन्तु जिसके होने पर जिसकी उत्पत्ति नियम से होती है वह उसका कार्य है, और जिसके होने पर कार्य की उत्पत्ति होती है वह उसका कारण है । इनमें कुछ कार्य और कारण सहभावी होते हैं । जैसे मृद्रव्य और घट में सहभावी कार्यकारणभाव है । कुछ कार्य और कारण क्रमभावी होते हैं। जैसे अग्नि और धूम में क्रमभावी कार्यकारणभाव है । पदार्थों की पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय में जो कार्यकारणभाव है वह भी क्रमभावी कार्यकारणभाव है । पदार्थों में कार्यकारणरूप, व्याप्यव्यापकरूप, पारतन्त्र्यरूप रूपश्लेषरूप आदि अनेक प्रकार का सम्बन्ध पाया जाता है । इस प्रकार यहाँ बौद्धाभिमत असम्बन्धवाद का निराकरण करके सम्बन्धसद्भाववाद का समर्थन किया गया है 1
विशेष के भेद
विशेषश्च ॥ ६ ॥ पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥ ७ ॥
सामान्य की तरह विशेष के भी दो भेद हैं- पर्यायविशेष और व्यतिरेकविशेष |
पर्यायविशेष का स्वरूप
एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्ष - विषादादिवत् ॥ ८ ॥
एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्यायविशेष कहते हैं । जैसे आत्मा में होने वाले हर्ष, विषाद आदि परिणाम पर्यायविशेष हैं ।
एक द्रव्य में क्रम से अनेक परिणाम होते रहते हैं । आत्मा नामक द्रव्य में कभी हर्ष होता है तो कभी विषाद होता है, कभी सुख होता है तो कभी दुःख होता है, कभी शोक है तो कभी प्रमोद होता है । ये सब आत्मा के परिणाम हैं और इन्हीं को पर्यायविशेष कहते हैं । सामान्य में अनुवृत्त प्रत्यय होता है और विशेष में व्यावृत्त प्रत्यय होता है । हर्ष और विषाद पर्यायों में व्यावृत्त प्रत्यय होता है । अर्थात् हर्ष पर्याय विषाद पर्याय से भिन्न है, ऐसा ज्ञान होता है । विभिन्न पर्यायों में इसी भेद का नाम पर्यायविशेष