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________________ १७० प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन । उत्तरपक्ष बौद्धों का उक्त कथन समीचीन नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण से ही पदार्थों में सम्बन्ध की सिद्धि होती है । तन्तु से सम्बद्ध पट का और पट से सम्बद्ध रूपादि का प्रतिभास प्रत्यक्ष से होता ही है । यदि उनमें कोई सम्बन्ध न हो तो उनका असम्बद्धरूप से ही प्रतिभास होना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । जब उनमें सम्बन्ध की प्रतीति हो रही है तो उनमें असम्बन्ध की कल्पना कैसे की जा सकती है ? सम्बन्ध न मानने पर घटादि में अर्थक्रिया का सद्भाव भी संभव नहीं होगा । परमाणुओं में सम्बन्ध न होने के कारण उनके द्वारा जलधारण, आहरण आदि अर्थक्रिया कदापि नहीं हो सकती है । ऐसी अर्थक्रिया तो घट के द्वारा ही संभव है । इसी प्रकार सम्बन्ध के अभाव में रज्जु, वंश ( बाँस ) आदि के एक देश के आकर्षण से उसके अन्य सम्पूर्ण भाग का आकर्षण ( खींचना ) नहीं होना चाहिए । किन्तु रज्जु ( रस्सी ) के एक देश के आकर्षण से पूरी रस्सी का आकर्षण होता है । इससे यही सिद्ध होता है कि पदार्थों में सम्बन्ध का सद्भाव है। ____ बौद्धों ने 'पारतन्त्रयं हि सम्बन्धः' इत्यादि जो कहा है वह कथनमात्र है । क्योंकि परमाणुओं में एकत्वपरिणतिरूप अथवा स्कन्धपरिणतिरूप सम्बन्ध प्रतीति सिद्ध है । हम परमाणुओं का सम्बन्ध न तो सर्वदेश से मानते हैं और न एक देश से मानते हैं, किन्तु भिन्न प्रकार से ही मानते हैं । जैनदर्शन में परमाणुओं में स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कारण सम्बन्ध माना गया है, जैसे सत्तू और जल में सम्बन्ध देखा जाता है । परमाणुओं में पारस्परिक सम्बन्ध हो जाने के बाद वे एक स्कन्धरूप परिणत हो जाते हैं और स्थूल आकार को धारण कर लेते हैं । उक्त पारतन्त्रयलक्षण सम्बन्ध कथंचित् निष्पन्न पदार्थों में पाया जाता है । पट तन्तुरूप द्रव्य की अपेक्षा से निष्पन्न है, किन्तु स्वरूप की अपेक्षा से अनिष्पन्न है । अतः पट और तन्तुओं में पारतन्त्र्यलक्षण सम्बन्ध मानने में कोई दोष नहीं है । ___इसी प्रकार बौद्धों का रूपश्लेषो हि सम्बन्धः' इत्यादि कथन एकान्तवादियों के मत में ही दूषण दे सकता है, अनेकान्तवादियों के मत में नहीं। हमने तो उन्हीं पदार्थों में रूपश्लेषलक्षण सम्बन्ध माना है जिनका स्वभाव एकत्वरूप परिणत होने का है । बौद्धों द्वारा कार्यकारणभावरूप सम्बन्ध
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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