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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ५
१६९ है ? अर्थात् उनमें सह्य और विन्ध्य पर्वतों के समान कोई परतन्त्रता नहीं हो सकती है । वास्तव में सब पदार्थों में कोई सम्बन्ध होता ही नहीं है । दो पदार्थों में रूपश्लेष सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता है । क्योंकि दो पदार्थों का रूपश्लेष हो जाने पर उनमें द्वित्व न रहकर एकत्व ही रहेगा । कहा भी है
रूपश्लेषो हि सम्बन्धः द्वित्वे स कथं भवेत् ।
। तस्मात् प्रकृतिभिन्नानां सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः ॥ इसलिए स्वभाव से भिन्न परमाणुओं में वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं होता है । यहाँ यह भी विचारणीय है कि यदि परमाणुओं में रूपश्लेष सम्बन्ध होता है तो वह सर्वदेश से होगा या एकदेश से । सर्वदेश से सम्बन्ध मानने पर अणुओं का पिण्ड अणुरूप हो जायेगा । और एक देश से सम्बन्ध मानने पर परमाणु के छह अंश मानना पड़ेंगे । क्योंकि चारों दिशाओं से
और ऊपर-नीचे से सम्बन्ध के लिए परमाणु में छह अंशों का होना आवश्यक है । किन्तु परमाणु तो निरंश होता है।
यह भी जानने योग्य है कि सम्बन्ध पर की अपेक्षा से होता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि सम्बन्ध की अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ स्वयं सत् है या असत् । यदि वह सत् है तो वह पर से सम्बन्ध की अपेक्षा क्यों करेगा । वह तो निष्पन्न और सत् होने के कारण सदा निराकांक्ष ही रहेगा । यदि वह असत् है तो भी वह सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं कर सकता है । जो स्वयं असत् है वह खरविषाण की तरह किसी की अपेक्षा कैसे कर सकता है ? कहा भी है. परापेक्षा हि सम्बन्धः सोऽसन् कथमपेक्षते ।
संश्च सर्व-निराशंसो भावः कथमपेक्षते ॥ - कार्यकारणभाव को भी सम्बन्ध नहीं माना जा सकता है । क्योंकि कार्य और कारण दोनों एक काल में तो रहते नहीं है । कारण के काल में कार्य नहीं रहता है और कार्य के काल में कारण नहीं रहता है । अतः भिन्न भिन्न कालवर्ती दो पदार्थों में कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता है । इत्यादि प्रकार से बौद्धों ने परमाणुओं में अथवा पदार्थों में सम्बन्ध के सद्भाव का निषेध किया है।