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________________ १६८ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . . तो उत्पत्ति के अनन्तर ही क्यों विनाश हो जाता है ? ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो निर्हेतुक है वह उत्पत्ति के अनन्तर ही नष्ट हो जाता है । . __क्षणिकैकान्त पक्ष में कृतनाश और अकृताभ्यागम का दोष भी आता है । सब पदार्थ क्षणिक हैं ऐसा मानने पर सब पुरुष भी क्षणिक सिद्ध होते हैं । अब यहाँ प्रश्र यह है कि जो व्यक्ति अच्छा या बुरा जैसा कर्म करता है उसको वैसा फल मिलता है या नहीं । शास्त्र तथा अनुभव तो यही कहता है कि अपने कर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा या बुरा फल मिलता है । किन्तु क्षणिकैकान्त पक्ष स्वीकार करने पर तो जिस व्यक्ति ने अच्छा या बुरा जो कर्म किया उसको उसका फल नहीं मिलेगा । क्योंकि वह तो कर्म करने के बाद ही नष्ट हो जाता है । यही कृतनाश है । अब यह देखिए कि जिस पुरुष ने कुछ भी कर्म नहीं किया उसको पूर्ववर्ती पुरुष के द्वारा कृत कर्म का फल मिल जायेगा । यही अकृताभ्यागम है । स्वर्ग जाने योग्य कर्म जिसने किया था वह तो स्वर्ग नहीं गया और जिसने कुछ भी नहीं किया था वह स्वर्ग चला गया । यह कितनी विचित्र बात है । इस बात में कितने बड़े अनर्थ की संभावना रहती है । अतः सर्वथा क्षणिकैकान्त के आग्रह को छोड़कर पदार्थ को कथंचित् नित्यानित्यात्मक स्वीकार करना चाहिए । ऐसा ही मत श्रेयस्कर है । सम्बन्धसद्भाववाद ' पूर्वपक्ष बौद्ध मानते हैं कि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श परमाणु सजातीय और विजातीय परमाणुओं से व्यावृत्त होते हैं तथा उनमें लोहे की शलाकाओं की तरह कोई सम्बन्ध नहीं होता है । पदार्थों में स्थूलत्वादि धर्मों की जो प्रतीति होती है वह भ्रान्त है । यदि पदार्थों में सम्बन्ध माना जाय तो या तो वह पारतन्त्र्यरूप होगा अथवा रूपश्लेष ( परस्पर में अनुप्रवेश ) रूप होगा । निष्पन्न पदार्थों में पारतन्त्रयरूप सम्बन्ध संभव ही नहीं है । कहा भी है पारतन्त्र्यं हि सम्बन्धः सिद्धे का परतन्त्रता । तस्मात् सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः ॥ जो पदार्थ सिद्ध ( निष्पन्न ) हैं उनमें कौनसी परतन्त्रता हो सकती
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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