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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ५
१६७ क्षण में ही एक साथ सब पदार्थों को उत्पन्न कर देता है तो द्वितीय आदि क्षणों में उसे करने को कुछ भी नहीं रह जायेगा ।और तब वह अर्थक्रियाकारी न होने कारण असत् हो जायेगा । क्षणिक पदार्थ क्रम से भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता है । क्योंकि वह केवल एक ही क्षण तो ठहरता है । उसमें न तो देशकृत क्रम बन सकता है और न कालकृत क्रम । अवस्थित एक पदार्थ के नाना देशों में रहने को देशकृत क्रम और नानाकालों में रहने को कालकृत क्रम कहते हैं । ऐसा देशकृत क्रम तथा कालकृत क्रम क्षणिक पदार्थ में संभव ही नहीं है । अनेक क्षणों की एक सन्तान मानकर भी उनमें क्रम नहीं बन सकता है । क्योंकि यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह सन्तान वास्तविक है या अवास्ताविक । सन्तान को वास्तविक मानने पर फिर प्रश्न होगा कि वह क्षणिक है या अक्षणिक । यदि सन्तान क्षणिक है तो उसमें भी कोई क्रम नहीं बनेगा । अब यदि सन्तान को अक्षणिक माना जाय तो बौद्धों को स्वमत हानि का प्रसंग प्राप्त होता है । सन्तान को अवास्तविक मानने से तो कोई लाभ नहीं है । क्योंकि अवस्तुभूत सन्तान में भी न तो क्रम बन सकता है और न वह अर्थक्रिया कर सकती है । इससे यही सिद्ध होता है कि सर्वथा क्षणिक पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता है । यथार्थ में कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है । . . सब पदार्थों को स्वभाव से विनाशरूप मानना भी ठीक नहीं है । ऐसा नहीं है कि घटादि पदार्थों का विनाश विनाश के कारणों की अपेक्षा के बिना स्वभाव से ही हो जाता है । हम तो प्रत्यक्ष के द्वारा यही अनुभव करते हैं कि दण्डादि के प्रहार से घट का विनाश होता है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि दण्ड के प्रहार से घट का विनाश न होकर कपाल की उत्पत्ति होती है । क्योंकि कपालरूप पर्याय की उत्पत्ति का नाम ही घट का विनाश है । किसी भी पर्याय का न तो निरन्वय विनाश होता है और न किसी पर्याय की निरन्वय उत्पत्ति होती है । अतः विनाश को पदार्थ का स्वभाव मानना और प्रतिक्षण विनाश मानना ये दोनों बातें संगत नहीं हैं । बौद्ध विनाश को अहेतुक और उत्पाद को सहेतुक मानते हैं । यहाँ हम बौद्धों से कह सकते हैं कि विनाश की तरह उत्पाद को भी अहेतुक मानिए । अथवा उत्पाद की तरह विनाश को भी सहेतुक मानिए । यदि विनाश निर्हेतुक है