________________
प्रस्तावना
नैयायिकों ने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान-ये १६ . पदार्थ माने हैं । वैशेषिकों ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये ७ पदार्थ माने हैं तथा पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन-ये ९ द्रव्य माने हैं । नैयायिकों ने आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव ( पुनर्जन्म ), फल, दुःख और अपवर्ग ( मुक्ति)-ये १२ प्रमेय माने हैं। - नैयायिक और वैशेषिक-इन दोनों ने ही सन्निकर्ष को प्रमाण माना है । नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान-ये चार प्रमाण मानते हैं, किन्तु वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान-ये दो ही प्रमाण मानते हैं । नैयायिक और वैशेषिर्क-इन दोनों ने ही प्रमाण को अस्वसंवेदी माना है । उनका मत है कि ज्ञान स्वयं अपना प्रत्यक्ष नहीं करता है, किन्तु दूसरे ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है । नैयायिक और वैशेषिक दोनों ने ही अर्थ और आलोक को ज्ञान का कारण माना है । दोनों ही गृहीतग्राही धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं । नैयायिक और वैशेषिक-दोनों ही आत्मा को शरीर परिमाण न मानकर व्यापक मानते हैं।
न्याय और वैशेषिक-ये दोनों ही दर्शन ईश्वर की सत्ता को मानकर उसके द्वारा संसार की सृष्टि मानते हैं । वे कहते हैं कि पृथिवी, पर्वत, शरीर आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान् पुरुष ( ईश्वर ) के द्वारा उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे कार्य हैं । इस अनुमान के द्वारा वे पृथिवी आदि कार्यों का एक ऐसा कर्ता सिद्ध करते हैं जो व्यापक, सर्वज्ञ और समर्थ है । ऐसा जो कर्ता है वही ईश्वर है । दोनों ही दर्शनों ने हेतु के पाँच रूप ( पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व ) माने हैं । तथा अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन-ये पाँच अवयव या अङ्ग माने हैं ।
मीमांसादर्शन..... मीमांसा शब्द का अर्थ है-किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ विवेचन । मीमांसा के दो भेद हैं-कर्ममीमांसा और ज्ञानमीमासा । यज्ञों