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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .
रहता है और कुंभकार, दण्ड, चक्रादि केवल उसका आविर्भाव करते हैं । इसी प्रकार घट के नाश का अभिप्राय यह है कि वह घट अपने कारण मिट्टी में छिप जाता है, न कि सर्वथा नष्ट हो जाता है । इसी का नाम घट का तिरोभाव है।
सांख्यों के अनुसार प्रकृति केवल की है और पुरुष केवल भोक्ता है । प्रकृति के समस्त कार्य पुरुष के लिए होते हैं । पुरुष प्रकृति का अधिष्ठाता है और पुरुष से अधिष्ठित होकर ही प्रकृति समस्त कार्य करती है । यद्यपि अचेतन होने से प्रकृति अन्धी है और निष्क्रिय होने से पुरुष लंगड़ा है, फिर भी अन्धे और लंगड़े पुरुषों के संयोग की भाँति प्रकृति और पुरुष के संयोग से प्रकृति कार्य करने में समर्थ हो जाती है ।अन्त में प्रकृति
और पुरुष में भेदविज्ञान हो जाने पर मोक्ष होता है । सांख्यदर्शन में ज्ञान प्रकृति का धर्म है, आत्मा का नहीं । संसार तथा बन्ध और मोक्ष-ये सब प्रकृति के ही स्वभाव अथवा धर्म हैं । पुरुष तो निर्विकार तथा निष्क्रिय होने से सर्वदा कूटस्थ नित्य रहता है । न्याय तथा वैशेषिक दर्शन___ न्यायदर्शन का विषय न्याय का प्रतिपादन करना है । न्याय का अर्थ है-विभिन्न प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना । इन प्रमाणों के स्वरूप का वर्णन करने के कारण इस दर्शन को न्यायदर्शन कहते हैं । इसका दूसरा नाम वादविद्या भी है, क्योंकि इसमें वाद में प्रयुक्त हेतु, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान आदि का वर्णन किया गया है । न्यायसूत्र के रचयिता गौतम ऋषि हैं । इन्हीं का नाम अक्षपाद है । न्यायदर्शन के मानने वाले नैयायिक कहलाते हैं । वैशेषिक दर्शन के सूत्रकार महर्षि कणाद हैं । विशेष नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक दर्शन प्रसिद्ध हुआ । कुछ बातों को छोड़कर अन्य अनेक बातों में न्याय और वैशेषिक दर्शनों में समानता पायी जाती है । इन दोनों दर्शनों का सम्मिलित नाम यौग है । अनेक ग्रन्थों में यौग नाम का उल्लेख मिलता है । मालूम पड़ता है कि दोनों के योग ( जोड़ी ) को यौग नाम दे दिया गया । यौग के नाम से जो कुछ कहा गया है वह सब न्याय और वैशेषिक दर्शनों में मिलता है।